‘इंसाफ दो’ के प्रति पाठकों की राय

उपन्यास के अंत से मेरे अधिकतर पाठकों को शिकायत हुई । उन्हें यह बात हजम नहीं हुई कि हैसियत वाले अपराधियों को, गंभीर, जघन्य अपराध के अपराधियों को कोई सजा न हुई । अब तक मैंने अपने हर उपन्यास में हमेशा दर्शाया है कि जुर्म का कोई हासिल नहीं, अपराधी अपराध करके बच नहीं सकता तो इस बार ऐसा क्यों कि न संगीता निगम के कातिल को सजा मिली, न कत्ल के लिए कातिल को उकसाने वाले को सजा मिली और न इकानामिक ओफेंसिज का गंभीर केस होने के बावजूद अमरनाथ परमार पर कोई नामलेवा कानूनी कार्यवाही हुई ।
उपरोक्त के संदर्भ में मैं अर्ज करना चाहता हूं कि मैंने दिल्ली के बाशिंदों की कहानी लिखी थी और दिल्ली एक शहर ही नहीं भारत की राजधानी भी है जहां सत्ता का, राजशाही का जायज या नाजायज सुख पाने वाले लोग बहुताहत में पाए जाते हैं और ये जगविदित है कि समरथ को नहीं दोष गोसाईं । नेताओं में कत्ल के अपराधी हैं, गबन के अपराधी हैं, बलात्कार और नारी शोषण के अपराधी हैं लेकिन सब छुट्टे घूम रहे हैं और सत्ता का सुख भोग रहे हैं । वस्तुतः ऐसे महानुभावों की मेहरबानी से अब यह स्लोगन ही गलत हो गया है कि क्राइम डज़ नोट पे । अब तो हालात यह बन गए हैं कि क्राइम पेज़ हैण्डसमली । क्राइम एक ऐसा व्यापार बन गया है जिसमें इन्वेस्टमेंट सिफर है और प्रॉफिट सौ फीसदी है ।

‘इंसाफ दो’ में मैंने दिल्ली की कहानी लिखी थी और यहां ‘जिसके सिर पर पुलिस स्वामी नेता स्वामी वह दुख कैसे पावे’ । यहां सब कुछ दो दुनी चार नहीं होता, आठ भी होता है, 18 भी होता है, अस्सी भी होता है । लिहाजा यह जो हकीकत लेखक को हजम हुई, मेरी दरख्वास्त है कि उसे पाठकगण भी हजम करने का मिजाज बनाएं । राजनीति वह लंका है जहां सारे 52 गज के हैं । अगर आप समझते हैं कि कोई सुधार की कहीं गुंजाइश है तो गलत समझते हैं । यहां विरोधी पार्टी सत्तारूढ़ पार्टी में करप्शन का नारा उठाती है तो इसलिए नहीं कि उसे करप्शन की फिक्र है, बल्कि इसलिए उठाती है कि वह मौका उनके हाथ से छिन गया, या उनके हाथ क्यों न आया ।

एक नेता के चुनावी भाषण पर गौर फरमाइए:

“अगर मैं जीत गया तो बनी हुई सड़कें खुदवाकर दोबारा बनवाऊंगा ।”

“ऐसा क्यों ?” - पब्लिक में से सवाल हुआ ।

“उनके ठेकेदारों ने कमा लिया, हमारे न कमायें !”

आशा है उपरोक्त से आप समझ गए होंगे कि क्यों मैंने ‘इंसाफ दो’ का उपसंहार वैसा लिखा जैसा कि छपा, जैसा कि अधिकतर पाठकों को नामंजूर हुआ ।

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- विशाल सक्सेना का कहना है कि ‘इंसाफ दो’ पढ़ कर उन्हें ‘आनन्द आ गया’ । उपन्यास हासिल करने में लगी सारी भागदौड़ और जद्दोजहद सूद समेत वसूल हो गयी । सुधीर कोहली उन्हें पूरे जलाल पर लगा । अपनी पसंदगी की मिसाल उन्होंने यूं दी:

‘इंसाफ दो’ का फर्स्ट क्वार्टर द्रविड़ की बैटिंग की तरह है, सेकंड क्वार्टर सचिन-सहवाग की बैटिंग की तरह है और लास्ट हाफ तो धोनी-युवराज की बैटिंग की तरह ताबड़तोड़, धुआंधार और तेज रफ्तार है । सुधीर कोहली और रजनी के पार्टी में पहुंचने के बाद तो जैसे युवराज के छक्के याद आ गये ।

- पंचकुला के अमीर सिंह, जो कि पेशे से इंजीनियर हैं, कहते हैं कि वो मेरे उपन्यास को मिठाई की तरह जेहनी स्वाद के लिये पढ़ते हैं, न कि उसके केमिकल अनैलिसिस के लिये । काजू कतली में स्वाद की अहमियत होती है, न कि इस बात की कि उसकी टुकड़ियां वास्तु कम्पलायंट कटीं हैं या नहीं । कहते हैं कि वो पिछले 32 साल से मेरे नियमित पाठक हैं लेकिन उन्होंने पहले कभी मुझे चिट्ठी न लिखी क्योंकि जिन बिन्दुओं को अन्य पाठक अपने आलादिमाग की खोज के तौर पर मुझे प्रेषित करते करते हैं, सिंह साहब उन को सहज ही लेखकीय लिबर्टी के खाते में डाल कर उपन्यास का रसस्वादन करते हैं ।

आगे उन्होंने मुझे ‘इंसाफ दो’ की सूरत में प्रस्तुत हुए जबरदस्त ‘हूडनइट’ के लिये बधाई दी है क्योंकि उपन्यास के अन्त तक उन्हें कातिल का अन्दाजा न हो सका । सुधीर कोहली उन्हें फुल फॉर्म में लगा और रजनी के साथ उसकी जुगलबंदी दिल के अनछुए तारों को छेड़कर चमत्कृत करने वाला संगीत पैदा करने वाली लगी, मन में एक कसक सी पैदा करने वाली लगी । सुधीर कोहली की फिलासफी और लेखक का - यानी आपके खादिम का - अंदाजेबयां उन्हें पूरे जद्दोजलाल पर लगा । अलबत्ता संगीता निगम के साफ हुई नाइंसाफी उन्हें अखरी, क्यों लेखक ने दर्शाया कि ऐसी औरतों का अंजाम ऐसा ही होता है ! क्यों ऐसा दर्शाया गया कि न कोई उस के कत्ल को खातिर में लाया, न किसी को सजा हुई और नेता जी ने कत्ल से उपजी सहानुभूति को अलग से कैश कर लिया । चरित्रहीनता को संगीता निगम के इंसाफ के लिये जिम्मेदार माना जाये तो यही अंजाम फिर शरद का, अमरनाथ का और खुद कोहली का क्यों न हुआ ! सिंह साहब आगे कहते हैं कि ये शायद मेरा पहला उपन्यास है जिस में किसी को मैंने अपने गुनाह की लज्जत लेते दिखाया है और इसी वजह से उपन्यास का मानवीय पक्ष कमजोर हुआ है ।

उपरोक्त के अलावा उपन्यास उन्हें फुल बैजा बैजा कराने वाला लगा ।

- लखनऊ के बैंक उच्चाधिकारी और मेरे पुराने, नियमित पाठक मदन मोहन अवस्थी को ‘इंसाफ दो’ का कथानक कमाल, कमाल, गजब, लाजवाब लगा, जिस में ‘वही चोर, वही पहरेदार । वही गवाह, वही कातिल’ । जमा, राजनीति की गिरावट, उचित-अनुचित काम का अंतर मिट जाने से सामाजिक मूल्यों का क्षरण । कहानी के तानेबाने में सबका धमाकेदार, बेमिसाल, सदाबहार मिश्रण । नोटबंदी अतिउपयुक्त सन्दर्भ में ।

- कानपुर के पुनीत कुमार दुबे का कहना है कि ‘इंसाफ दो’ में पाठक सर अपने पूरे जलाल के साथ वापस । कहते हैं बहुत अरसे बाद आत्मा तृप्त हुई लेकिन इसका मतलब ये न लगाया जाये कि मैंने जो हालिया उपन्यास लिखे, वो किसी कदर कम थे । अपनी बात को उन्होंने सचिन की मिसाल देकर और समझाया कि सचिन ने अपने एकदिवसीय करियर में जो 49 शतक लगाये, वो भी किसी से कमतर न थे पर सब को याद उसका दोहरा शतक है जो उसने ग्वालियर में लगाया । लिहाजा ‘इंसाफ दो’ - बकौल उनके - मेरा दोहरा शतक है जो बरसों तक याद रखा जाएगा ।
अहमदाबाद के शिव चेचानी ने ‘इंसाफ दो’ को ‘बाकमाल', 'जोरदार', 'जानदार', 'पैसा वसूलजैसे कई अलंकरणों से नवाजा । कहते हैं उपन्यास एक ही बैठक में पढ़ा और भरपूर लुत्फ़ उठाया । कोहली फुल फॉर्म में लगा और बेनामीनोटबंदी जैसे मसायल का जिक्र अच्छा लगा । अलबत्ता बेनामी का जिक्र अतिरेकपूर्ण लगा क्योंकि आज के टाइम में एक ही शख्स की तीस मकानों की मालिकी इनकम टैक्स वालों की निगाहों से नहीं बच सकती ।

उपरोक्त के संदर्भ में मेरा निवेदन है:

जिस के सर ऊपर 'नेतास्वामी,

वो दुःख कैसे पावै !

इस संदर्भ में किसी को 'जमाई राजायाद आ जायें तो मुझे ख़ुशी होगी ।

प्रूफ रीडिंग से उन्हें शिकायत हुई । ऐसी शिकायत उन्हें भविष्य में न हो इस बाबत लेखक और प्रकाशक भरसक प्रयत्न करेंगे । उपन्यास में चेचानी साहब ने कुम्भ राशि का अतिरेक बताया - सुधीरश्यामलाशेफालीसंगीतासार्थकशरदशिखरशिवेंद्र - लेकिन यकीन जानिये ये महज इत्तफाक हुआ जिस की टोके जाने तक मुझे कतई कोई खबर नहीं थी ।

- दिल्ली के हसन अलमास कहते हैं कि उन्होंने जानबूझकर उपन्यास धीरे-धीरे, तीन दिन में पढ़ा क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि खत्म हो गया तो अगले नॉवल का पता नहीं कब तक इंतजार करना पड़ेगा । बहरहाल उन्होंने नॉवल के हर पैरा, हर किरदार, हर डायलॉग का भरपूर लुत्फ उठाया । उपन्यास में एलिमेंट ऑफ सस्पेंस उन्हें कमाल का लगा और उन्होंने दावा किया कि कोई भी पाठक असल कातिल की आइडेंटिटी को वैसे ही नहीं भांप सकेगा जैसे कि वह खुद न भांप सके ।

कुल जमा उपन्यास में सुधीर कोहली उन्हें ब्रिलिएंट लगा और उसकी डिडक्टिव रीजनिंग ने उन्हें मंत्रमुग्ध किया । उपन्यास के छोटे बड़े, खोटे खरे हर किरदार ने उन्हें मुतमईन किया । लेकिन सुधीर कोहली ‘इंसाफ दो’ में उन्हें ‘कम हरामी’ लगा । शेफाली परमार का किरदार उन्हें शो-स्टीलर लगा ।

उपन्यास में जगह जगह पिरोये गए फिलोसोफिकल कोट्स उन्हें बहुत पसंद आए और कोई दर्जनभर को तो उन्होंने अपनी विस्तृत मेल में दर्ज भी किया ।

- दिल्ली के पराग डिमरी की राय में ‘इंसाफ दो’ ने सौ प्रतिशत से ज्यादा इंसाफ दिया । कहते हैं ‘77’ में भी मैंने ‘इंसाफ दो’ लिखकर ‘27’ वालों को झिंझोड़ देने वाला कारनामा किया है ।

- कपूरथला के गुरुप्रीत सिंह ने ‘इंसाफ दो’ को परफेक्ट मर्डर मिस्ट्री करार दिया और 10 में से 11 नंबर दिए । ‘इंसाफ दो’ ने  नए नॉवल के प्रकाशित होने के लंबे इंतजार का गम भुला दिया, साथ ही हैरत जताई कि इतना लिखने के बावजूद युअर्स ट्रूली के लेखन में कोई कमी नहीं आई थी ।

नॉवल हासिल करने के लिये उन्होंने जो जहमत की, वो भी हैरतअंगेज है और काबिलेजिक्र है । दिल्ली में उनके एक ग्रुप मेट के पास नॉवल उपलब्ध था । उसने नाईट सर्विस की जीटी रोड के के लॉन्ग रूट की वोल्वो बस के ड्राइवर को उपन्यास दिया जोकि ड्राइवर ने रात के दो बजे सड़क पर उस बस के इंतजार में खड़े गुरप्रीत सिंह जी को सौंपा । बस के इंतजार में सड़क पर जहां एडवांस में जाकर खड़े हुए वह जगह कपूरथला में उनके घर से मील दूर थी । कहना न होगा कि लेखक की ऐसी कदर ने ऐसी पूछ ने उसे बहुत जज्बाती किया ।

उपरोक्त के विपरीत एक-दूसरे मेहरबान पाठक के बारे में सुनिए । कोई 500 किलोमीटर दूर से गुड़गांव आ कर वो कुछ दिन के लिए रुके थे और तभी मेरे नव प्रकाशित उपन्यास को हासिल करने के लिए बुरी तरह से उतावले हो रहे थे । उन्होंने इस बाबत मुझे फोन किया तो मैंने उन्हें गुड़गांव में रहते अपने एक मित्र का पता बताया और कहा कि उसके पास उपन्यास था जो वह सहर्ष उन्हें दे देगा जा कर ले आयें । 10 मिनट बाद दोस्त का फोन आया कि वो तो कह रहे थे कि उपन्यास दोस्त उनके घर पर पहुंचा कर जाए ।

लिहाजा छाती पर बेर पड़ा है इंतजार है कि कोई आए और उठाकर मुंह में डाल दे ।

- भोपाल के विशाल सक्सेना ने भोपाल में ‘इंसाफ दो’ तो ढूंढे न मिला । नागरा बस स्टैंड के बुक स्टोर के मालिक से जो वह संवाद कहते हैं उनका हुआ, वो अगर सच में हुआ तो दिलचस्पी से खाली नहीं ।

मुलाहजा फरमाइए:

“मैंने ‘आखिरी कोशिश’ करी है कि आपके यहां ‘इंसाफ दो’ मिल जायेगा क्योंकि आपका बुकस्टाल भोपाल के तमाम बुकस्टालों में ‘मलिका का ताज’ है, एकदम ‘गोल्डन गर्ल’ जैसा ।”

“अरे मियां, क्यों ‘गड़े मुर्दे’ उखाड़ रहे हो? मैं अब भी एक मामूली ‘प्यादा’ हूं । एक जमाना था जब सभी तरह की किताबें धड़ल्ले से बिकती थीं । कोई भी ‘चोरों की बारात’ जैसे लेखक ‘बहुरूपिया’ बन कर कुछ भी लिख देते थे तो वो भी बिक जाता था क्योंकि उस समय पढने वाले बहुत थे । आज की तारीख में TV, इंटरनेट और मोबाइल के ‘ओवरडोज’ ने ऐसी ‘घातक गोली’ चलाई है कि उस ‘गोली की आवाज’ इस धंधे के लिए ‘खतरे की घंटी’ बज रही है वरना एक जमाने में हम भी एक तरह से ‘निम्फोमैनियाक’ के जैसे थे - कभी भी, किसी भी समय, किसी को भी न नहीं कहना पड़ता था । जिसने जब भी जिस किताब की फरमाइश करी, निकाल कर दे देते थे । अब तो यह धंधा ‘वन वे स्ट्रीट’ की तरह हो गया है, आवक ही आवक है और जावक वाला कॉलम खाली है । ऑनलाइन बिक्री ने और कमर तोड़ दी है । अब तो बस कुछ तुम्हारे जैसे कदरदान बचे हैं और कुछ पाठक साहब जैसे लिखने वाले । यदि प्रजातंत्र के स्तम्भों को निशान मान लें तो किताबों को ‘पांचवां निशान’ मानना चाहिये क्योंकि किताबें भी समाज को उतना ही प्रभावित करती हैं और और उतना ही महत्व रखती हैं जितने बाकी चार । आज की तारीख में जिंदगी की कशमकश और भाग-दौड़ में किस को फुर्सत है कि वह किसी ‘खूनी घटना’ में ‘कत्ल का सुराग’ ढूंढें ?”

“चाचा मेरा तो ‘आखिरी मकसद’ ये उपन्यास पाना है, बस समझ नहीं आ रहा कि कहां गुहार लगा हूं कि मुझे ‘इंसाफ दो’ ।”

- बकौल मेरठ के कंवल शर्मा ‘इंसाफ दो’ ने सुधीर सीरीज के पिछले उपन्यास बहुरूपिया की कामयाबी को भी पीछे छोड़ दिया है । प्रस्तुत उपन्यास पिछले उपन्यास से कहीं अधिक शानदार, जानदार रचना है जिसमें एक तेज रफ्तार मर्डर मिस्ट्री के जितने इंग्रेडिएंट होते हैं वह सब भरपूर लगे । उन्होंने ‘इंसाफ दो’ को एक लाजवाब रचना करार दिया जिसकी बानगी सुधीर कोहली की लोकप्रियता को यकीनन नए अंजाम देगी, सुधीर जिन खसूसियात के लिए जाना जाता है, वह आपके खादिम ने न सिर्फ बरकरार रखीं बल्कि उन्हें निहायत खूबी से दर्शाया ।

अंत में उन्होंने उपन्यास को लाजवाब करार दिया और कहा कि उपन्यास जीतसिंह सीरीज की एकरसता को एक झटके में खत्म करता है ।

- वर्धा, महाराष्ट्र के हनुमान प्रसाद मुंदड़ा ने ‘इंसाफ दो’ की बाबत जो कसीदे पढ़े, वो बाकमाल हैं । उन्होंने उपन्यास को प्लैटिनम की अंगूठी में जड़ा अनमोल, नायाब हीरा करार दिया । कहानी, रफ्तार, सस्पेंस सब उन्हें बेहतरीन लगा । कहते हैं कि कातिल कौन है इसका अंदाजा आखिर तक नहीं होता । अलबत्ता प्रूफ की बेतहाशा गलतियों ने उन्हें बहुत परेशान किया ।

- कानपुर के अंकुर मिश्रा को शिकायत है कि ‘इंसाफ दो’ जैसा शाहकार पढ़ना शुरु किया तो क्यों इतनी जल्दी समाप्त हो गया ! क्यों नहीं इसे पका पका कर आराम से पांच-दस दिन चलाया गया !

‘इंसाफ दो’ के जरिए सुधीर से हुई मुलाकात उन्हें खूब भाई, सुधीर उपन्यास में उन्हें पूरे जद्दोजलाल में नजर आया । उपन्यास ने उन्हें आखिर तक बांधे रखा और सस्पेंस आखिर तक बरकरार पाया । जासूसी उपन्यास के होते हुए भी उस का कथ्य उन्हें वर्तमान हाई सोसाइटी पर तीखे प्रहार करता नजर आया । शक्तिसंपन्न नेताओं के सामने न्याय कितना बौना हो जाता है, उपन्यास ने इस तथ्य को बखूबी चित्रित किया ।

- राज सिंह को ‘इंसाफ दो’ खास पसंद नहीं आया । कहते हैं अमूमन वह मेरा उपन्यास दो या तीन सिटिंग में पढ़ लेते हैं लेकिन ‘इंसाफ दो’ को उन्होंने सात सिटिंग में पढ़ा । उपन्यास ने उनके जेहन में कोई घंटी न बजाई, उसमें सस्पेंस उन्हें न होने जैसा लगा और लगा कि कुछ पुराना पढ़ रहे हैं, नये नॉवल जैसा कुछ था ही नहीं । अलबत्ता सुधीर की फिलॉसफी उन्हें पसंद आई ।

- प्रमोद जोशी को ‘इंसाफ दो’ निहायत सुस्त घटनाक्रम वाला बेहद बोर उपन्यास लगा, इतना कि उन्होंने इस बात पर भी शंका प्रकट की कि उपन्यास क्या वाकई मैंने लिखा था ! बकौल उन, उपन्यास का नाम ‘इंसाफ दो’ की जगह ‘बोरियत लो’ होना चाहिए था । सुधीर का कोई कारनामा इस में दर्ज नहीं था (!) मैं चाहता तो बड़े आराम से इसे सुनील सीरीज बना सकता था ।

मैंने उन की अछूती राय से सबक लिया कि अगर लेबल बदल जाए तो प्रोडक्ट की क्वालिटी में इंप्रूवमेंट आ जाती है ।

अंत में इस बात पर उन्होंने खास जोर दिया कि उनके 125 रुपए बेकार गए ।

- बनारस के राघवेंद्र सिंह दिल से कहते हैं कि मन एक अरसे बाद तृप्त हुआ, ‘इंसाफ दो’ उन्हें ऐन अंजीर की बर्फी लगा । वे जीते के ओवरडोज से परेशान थे, मेरे हूडनइट्स ही उन्हें उत्तम और अतुलनीय लगते हैं और सुधीर कोहली की जुबान में कहते हैं कि इस विधा में मेरे आसपास 40 कोस तक कोई नहीं है । सुधीर पूरे उपन्यास में उन्हें अपने जलाल पर लगा और रजनी भी उतनी ही बेहतरीन लगी । अंत में उन्होंने ‘इंसाफ दो’ को 100 में से 100 के स्कोर के लायक ठहराया और देवों के देव बाबा विश्वनाथ और संकटहरण, संकटमोचन के आशीर्वाद से नवाजा जो कि सादर, साभार मेरे सिर-माथे ।

लखनऊ के अभिषेक अभिलाष मिश्रा बहुत कनफ्यूज्ड माइंड के मालिक हैं  ‘इंसाफ दो’ के बारे में राय लिखते वक्त शुरु में तो उन्होंने उपन्यास को मेरे तमाम हालिया उपन्यासों में - जो कि कोलाबा कांस्पीरेसी के बाद छपे - बेहतरीन बताया । उसे ‘सबसे बेस्ट मर्डर मिस्ट्री’ करार दिया । लेकिन फिर अपने लंबे आलेख के अंत तक पहुंचते-पहुंचते ‘इंसाफ दो’ को पहले लगाए तमाम फुंदने भुला दिये और अत्यंत रोषपूर्ण शब्दों में उसे अत्यंत निराशाजनक  (हमेशा की तरह) उपन्यास करार दिया, इसलिए ऐसा कहा क्योंकि उपन्यास के अंत में मुजरिमों को सजा न मिलना उन्हें नागवार गुजरा । यानी एक ही कुल्फी जो उन्होंने खाई, वह एक तरफ से मीठी थी, दूसरी तरफ से नमकीन थी । कहते हैं उनके पास शब्द नहीं हैं जिनसे वो अपना रोष प्रकट कर सकें जब कि उन्होंने इसी काम के लिए विस्तृत, अतिविस्तृत मेल भेजी है । यह विचारणीय प्रश्न है कि अगर उनके पास अपना रोष प्रकट करने के लिए शब्द होते तो उनकी मेल का क्या साइज होता । ‘इंसाफ दो’ को रेटिंग में उन्होंने एक बड़े वाला जीरो दिया है और आशा प्रकट की है बल्कि ऊपर वाले से बाकायदा दुआ की है कि उन्हें भविष्य में दोबारा ऐसा नॉवल पढ़ने को न मिले ।

उन्हें अफसोस है कि उन्होंने 130 रुपए नाली में गिरा दिए । (उठा लेने थे भई !)

- बटाला के प्रोफेसर रवीन्द्र जोशी ने ‘इंसाफ दो’ के प्रति अपनी राय हमेशा की तरह इंग्लिश में प्रकट की है:

The novel ‘Insaf Do’ is hardhitting of the decline of sex and political morality. Very realistic. The ‘Lekhakiya’ is a double bonus. The Sudhir series, as usual, is exceptional.

- मोहाली, चंडीगढ़ के गुरप्रीत सिंह ने सबसे पहले ‘इंसाफ दो’ के बारे में खास सवाल किया कि ‘इंसाफ एक’ कब प्रकाशित हुआ !

आगे वो कहते हैं कि उन की निगाह में मेरे उपन्यासों का दर्जा स्कॉच विस्की का है लेकिन जब से वो उम्दा वाइट पेपर पर छपने शुरू हुए हैं, उन का दर्जा बेहतरीन सिंगल माल्ट का हो गया है - यानी जैसे आधा नशा तो सिंगल माल्ट की पैकिंग खोलकर उसे सूंघने से ही हो जाता है, वैसा असर मेरा लेखकीय ही कर दिखाता है 

सिंगल माल्ट --- सॉरी ‘इंसाफ दो’ उन्हें खूब पसंद आया लेकिन स्टोरीलाइन ने सुनील के लिये ज्यादा उपयुक्त लगी । उन्होंने ख्वाहिश जाहिर की है कि ‘इंसाफ दो’ में अगर जॉन पी एलेग्जेंडर और सिल्विया ग्रेको भी होते तो सोने पर सुहागा वाला काम होता  बहरहाल कुछ विसंगतियों के बावजूद, कुछ प्रूफ की गलतियों के बावजूद उन्हें कथानक रोचक और तेज रफ्तार लगा और सुधीर की फिलासफाना बातें अपने जलाल पर लगीं ।

- इमरान अंसारी की राय में उपन्यास अच्छा बन पड़ा है, सुधीर कोहली अपनी तमाम खूबियों/खामियों के साथ पूरे जलाल पर दिखा एवं सस्पेंस अंत तक बरकरार रहा । बकौल उन के उपन्यास वर्तमान समाज में फैली बुराइयों को उजागर करता है, बड़े और रसूखदार घरों की दीवारों के अंदर जो गंदगी भरी पड़ी है, वो बाहर से दिखने लगे तो मुंह पर कीचड़ ही कीचड़ नजर आये । अलबत्ता कत्ल की वजह उन्हें लचर लगी और नोटबंदी के कारण बेनामी खरीद का सिलसिला उपन्यास में बाद में जोड़ा गया लगा ।

जर्मनी से ज्ञानेश गदरे के 'इंसाफ दोके प्रति उद्गार उन्हीं के शब्दों में:

It is the kind of book I love you for ie a murder mystery. I like your Vimal, Jeet Singh etc but nothing makes me as happy as a murder mystery with Sudhir or Sunil at the helm. ‘Insaf Do’ has everything – great mystery, plenty of suspects, great script and what not! Above all, one cannot guess easily who’s the killer.

नागपुर के विक्रम कमलाकर को सुधीर का नया कारनामा हमेशा की तरह अच्छा लगा और उन्होंने 'इंसाफ दोको 200 % उम्दा करार दिया । रजनी और सुधीर की स्मार्ट टॉक में रजनी उन्हें फ्रंट फुट पर नजर आयी । उपन्यास में इन्सेस्ट और हाई सोसायटी का जो रिश्ता उजागर हुआ जो जाहिर करता है कि हमारे समाज का कितना पतन हुआ है और अभी आगे होगा । इन्सेस्ट को उन्होंने एक घृणितअक्षम्य सामाजिक कर्म बताया ।

पटना के गुंजन कुमार ने उपन्यास एक ही बैठक में पढ़ासुबह सात बजे उपन्यास ले कर बैठे तो बारह बजे खत्म कर के ही उठे । हमेशा की तरह सुधीर कोहली उन के दिल को भा गया और उपन्यास पढ़ कर मजा आ गया लेकिन अगर रहस्यमयी रमणी का पता सुधीर कोहली खुद लगाता तोकहते हैं किमजा दोगुणा हो जाता ।

मुंबई की डॉक्टर सबा खान - जो कि खुद भी लेखिका हैं - ने भी 'इंसाफ दोएक ही बैठक में पढ़ा और उसमें वो 'सब कुछपाया जो सुधीर कोहली के उपन्यास में होना अपेक्षित होता है । पूरा उपन्यास पढ़ते वक्त कहीं भीएक बार भीबानगीरवानगी टूटती न लगी । रजनी के बगैर अब सुधीर के उपन्यास की कल्पना करना भी संभव नहीं रहा, दोनों के प्रसंगों ने तबीयत से दिल खुश किया । कुल मिलाकर उन्होंने उपन्यास को ‘शाहकार’ का दर्जा दिया ।

- नागौर के डॉक्टर राजेश पराशर को उपन्यास तो बढ़िया लिखा लगा लेकिन कहते हैं कि पढ़ते वक्त बार-बार सुनील की याद आई क्योंकि इस तरह की मर्डर मिस्ट्री सुनील के उपन्यासों में मिलती है  उपन्यास में समाज के आधार स्तंभ संभ्रांत वर्ग पर कटाक्ष किया गया डॉक्टर साहब को बहुत पसंद आया । अलबत्ता कातिल का अंदाजा वह कहते हैं कि उन्हें आधे उपन्यास तक हो गया था  फिर भी उपन्यास कुछ इस तरह लिखा गया है कि पाठक अंत तक बंधा रहता है । खामियों के खाते में थ्रिल की उन्हें कमी लगी और सुधीर सीरीज के अन्य उपन्यासों जितना एक्टिव नहीं लगा, उसने बातें ज्यादा कीं, डिटेक्टिंग कम की । ‘इंसाफ दो’ को उन्होंने 10 में से आठ नंबर दिये 

- बिलासपुर के साकेत अवस्थी को ‘इंसाफ दो’ हमेशा की तरह शानदार, उम्दा और कसा हुआ लगा । कहते हैं कि सीमित पात्रों के बावजूद कातिल का अंदाजा लगा पाना कठिन था; वो अंदाजा लग भी जाता तो कत्ल का उद्देश्य समझ पाना संभव नहीं था । आगे कहते हैं कि समाज के उच्च, श्रेष्ठ वर्ग में आजकल हर बुरी चीज को फैशन के रूप में अपनाने का चलन हो गया है चाहे ड्रग्स हों, चाहे सेक्स हो और चाहे सेक्स का सबसे घिनौना रूप इंसेस्ट हो 

ऑस्ट्रेलिया में बसे सुधीर बड़क की राय उनकी अपनी भाषा में:

It is a very well thought out and written piece by the undisputed maestro of the crime fiction. It has most of the hallmarks of a typical Sudhir Kohli novel. A tightly knit plot, smooth mystery, Sudhir's philosophical take on the modern society and your omnipresent crisp writing style make it worth a read if not a must read.

Reading the book made me wonder, yet again, why the series featuring my namesake character has not been worthy of your attention more often, despite being appreciated, I daresay, by most of the readers! Anyway, it is a really engrossing read indeed.

Bravo!

- जबलपुर के डॉक्टर अमरेश मिश्र का ‘इंसाफ दो’ की बाबत कहना है कि आमतौर पर सुधीर सीरीज के उपन्यासों में हूडनइट की गुंजाइश कम होती है, ‘इंसाफ दो’ के आगाज में भी उन्हें कुछ ऐसा ही लगा था लेकिन अंजाम तक पहुंचते-पहुंचते कहानी काफी दिलचस्प लगने लगी और उपन्यास आखिर हूडनइट ही साबित हुआ । मोटे तौर पर कहानी को उन्होंने दरम्याने किस्म की बताया - न बहुत उम्दा, न बुरी - लेकिन फिर भी उपन्यास को कामयाब बताया 

कोलकाता के आनंद कुमार सिंह को ‘इंसाफ दो’ सुधीर के पूर्व के उपन्यासों के सामने फीका लगा । रोचकता का आभाव लगा फिर भी इसलिए पढ़ा क्योंकि ‘आप का लिखा उपन्यास था पढ़े बिना छोड़ा तो नहीं जा सकता न !’ हमेशा विद्यमान रहने वाले पैने सस्पेंस के ‘इंसाफ दो’ में उन्हें कहीं दर्शन न हुए  सुधीर की हाजिरजवाबी और फन एलिमेंट तक बुझा सा था  अप्रत्याशित मोड़ कथानक में से नदारद थे 

गोंदिया के शरद कुमार दुबे को ‘इंसाफ दो’ सुधीर का टिपीकल तेज रफ्तार और मनोरंजक उपन्यास लगा जिसने बकौल उनके, हमेशा की तरह कामयाबी के झंडे गाड़ दिये । उपन्यास सुधीर के पिछले सारे उपन्यासों के समान बेजोड़ लगा । सुधीर की फिलॉसफी से मालामाल एक खास सम्वाद ने भीतर तक उनके दिल को छू लिया:

“दुनिया सुधीर कोहली के कैरेक्टर को बद् बोलती है इन लोगों के मुकाबले में तो मैं महात्मा था 

कमला ओसवाल, सुनीता निगम और बांसुरी कुशवाहा जैसे किरदार गढने के लिये उन्होंने मुझे अलग से बधाई दी 

अमरीकी राष्ट्रपतियों से संबंधित लेखकीय ने उनका भरपूर मनोरंजन और विस्तृत ज्ञानवर्धन किया 

प्रशांत हजारे साहब ने ‘इंसाफ दो’ के प्रति ऐसी राय लिखी कि समझने में एकबारगी तो दिमाग की चूलें हिल गईं  लिखते हैं:

सस्पेंस और प्लॉट अच्छा था लेकिन डिश ऐसी परोसी गयी जैसे डायबिटीज और ब्लड प्रेशर के मरीज के लिए तैयार की गई हो  चिल और थ्रिल की कमी बेहद खली जिसकी कि आपके लेखन में कभी कमी नहीं होती 

उपन्यास हमेशा की तरह बेहतरीन (!)

- रांची के परमजीत सिंह ने ‘इंसाफ दो’ लगातार तीन बार पढ़ा । उन्हें उपन्यास जीत सिंह के धुआंधार कारनामों के बाद एक ठंडी, मीठी बौछार जैसा लगा । कहते हैं अगर वह प्रकाशक होते तो मेरे सामने सिर्फ सुधीर कोहली के उपन्यास लिखने की शर्त रखते । कहते हैं कोहली की स्मार्ट टॉक से ही उपन्यास की पूरी कीमत वसूल हो गई, बाकी उपन्यास तो बोनस के तौर पर कबूल किया । 

उन्होंने फरमाइश की है कि मैं कोहली का आइन्दा पार्ट में लिखूं 

योगेश तनेजा को ‘इंसाफ दो’ शानदार, तेज रफ्तार लगा । उपन्यास में सुधीर उन्हें पूरे रंग में दिखा । कहते हैं आज की मॉडर्न सोसाइटी के ढोल की पोल बिल्कुल सही दिखाई गई । सार्थक के कैद वाले ठीये का बहुत आसानी से मिल जाना और कमला ओसवाल का आग की घटना के बाद भी चुप रहना उन्हें हजम नहीं हुआ 

कोलकाता के संदीप शुक्ला ने उपन्यास को 100 में से सौ मार्क्स दिये  उन्हें उपन्यास अत्यंत रोचक और मनोरंजक लगा लेकिन, कहते हैं कि घटनाक्रम थोड़ा और विस्तृत हो जाता तो बेहतर होता  सुधीर रजनी की नोकझोंक अत्यंत रोचक लगी और सुधीर, दि फिलासफर डिटेक्टिव का फलसफा दिल छूने वाला लगा अलबत्ता यह एलिमेंट और विस्तृत हो जाता तो मजा आ जाता 

- ग्वालियर के नूतन कुमार जैन को ‘इंसाफ दो’ ठीक लगा पर बढ़िया नहीं, सस्पेंस कम लगा पर कहानी यथार्थता के करीब लगी । उपन्यास उन्हें जबरदस्ती खींचा गया लगा और यह बात उन्हें कतई हजम नहीं हुई कि अंत में अपराधियों को सजा मिलती न दिखाया गया  ‘इंसाफ दो’ नामक आंदोलन की बुनियाद ही उन्हें गलत लगी 

- गिद्ध्वाहा, पंजाब के सुनील कुमार ‘इंसाफ दो’ पढ़ने तक मेरे ‘बिग फैन’ थे लेकिन अब वह मुझे इस सम्मान के योग्य नहीं समझते । कहते हैं मेरा ‘पानी अब उतर चुका है’ जो कि ‘इंसाफ दो’ से साबित होता है जो कि घटिया, बकवास और वाहियात है जिसे कि उन्होंने बड़ी मुश्किल से पढ़ कर खत्म किया । बकौल उनके इस ‘नोबल’ में - वो नॉवल को नोबल लिखते हैं - बहुत सारी गलतियां और कमियां थीं (जिनकी कोई व्याख्या उन्होंने न की) और सस्पेंस के नाम पर इसमें कुछ भी नहीं था क्योंकि उन्हें शुरु से ही पता था कि कत्ल किसने किया था और कातिल के ऊपर जो हमला हुआ था, वह फर्जी था । उन्होंने मुझे सलाह दी है कि मैं ‘क्राइम पेट्रोल’ देखा करूं मुझे अकल आ जाएगी । आखिर में बतौर समअप उन्होंने लिखा:

उपन्यास पूरी तरह से बोझिल और बोरिंग है, ऐसा लगता ही नहीं कि यह आपने लिखा है 

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