सरकारी नौकरी उर्फ़ एटर्नल रेस्ट
पहले
जब मैं बेकार था तो कहा करता था कि कैसी भी नौकरी मिल जाये मुझे मंजूर होगी. ऊपर
वाले के करम से आखिर नौकरी मिल गयी तो मैं उस से बेहतर नौकरी की ख्वाहिश करने लगा.
बेहतर नौकरी भी मिल गयी लेकिन मन का असंतोष फिर भी बना रहा. अब मैं और भी अच्छी
नौकरी का तलबगार था. ऊपर वाले के मुतवातर करम से और सिफारिशें जुटाने की मेरी अपार
क्षमता से मुझे और अच्छी नौकरी भी मिल गयी लेकिन मैं नाशुक्रा फिर भी नाखुश.
अब मैं सरकारी नौकरी चाहता हूँ.
अब मैं चाहता हूँ कि मैं किसी भी तरह केन्द्रीय सरकार के किसी मंत्रालय में नौकरी हासिल कर पाऊं, भले ही मेरी तनख्वाह मेरी मौजूदा तनख्वाह से कम हो.
आप वजह पूछेंगे!
वजह है, जनाब, बहुत माकूल वजह है. वजह ये है कि अपनी नस्ल के बाकी लोगों की तरह मैं भी पैदायशी कामचोर और काहिल हूँ. काम – काम से ज्यादा काम करने का जुनून - मुझ में तभी तक था जब तक कि मुझे नौकरी नहीं मिली थी. जब मैं बेकार था तो कुछ भी करने तो तैयार था, और लोगों से ज्यादा करने को तैयार था, अपनी मेहनत और ईमानदारी के दम पर मैं अपने एम्प्लायर्स की तारीफी निगाहों का हकदार बनने का सपना देखा करता था. लेकिन अब कोई ऐसा ऊंचा आदर्श मेरे चरित्र में बाकी नहीं. अब मैं भी उसी व्यवस्था का पुर्जा हूँ जिस में काम करना, खास तौर से वो काम करना जिस के लिए आप को तनख्वाह मिलती है, गैरजरूरी समझा जाता है. नौकरी की रूटीन में पड़ने के लगभग फ़ौरन बाद ही मुझे अहसास हो गया था कि जरूरत से ज्यादा काम करने से कोई मैडल तो मिलता नहीं, उलटे सहयोगी कर्मचारी आप को ऐसा अवांछित व्यक्ति समझने लगते हैं जो निर्धारित समय में ज्यादा काम कर के मालिकान को जताने की कोशिश कर रहा था कि ज्यादा काम किया जा सकता था.
जो कि एक नाजायज हरकत थी.
आप तो माहौल ख़राब करने कर तुले हैं! आप तो अपने फेलो वर्कर्स के साथ गद्दारी कर रहें हैं! आप की उस बेहूदा हरकत से आप का तो कोई भला होगा नहीं, मालिकान आप को औरों के लिए भी पैमाना जरूर बना देंगे. नोट करने लगेंगे कि जब एक आदमी बड़े आराम से इतना काम कर सकता है तो बाकी मुलाजिम क्यों नहीं कर सकते! हम नहीं कर सकते, जनाब. हम भले घरों के चिराग हैं, इज्जतदार आदमी हैं, कोल्हू के बैल नहीं जो साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुँच जाएँ, आते ही काम शुरू कर दें और छ: बजे तक करते रहें, करते ही रहें.
अपने सरकारी मुलाजिम चंद दोस्तों की बातों से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि काम न करने की जितनी सहूलियत सरकारी नौकरी में है, खास तौर से दिल्ली में सेंट्रल गोरमेंट की नौकरी में हैं, उतनी और कहीं नहीं. ये बात दिमाग में घर कर जाने के फ़ौरन बाद से ही मैं इस कोशिश में जुट गया कि किसी तरह मैं कोई सरकारी नौकरी हासिल करने में कामयाब हो जाऊं.
बल्ले भई, कितने ठाठ हैं सरकारी नौकरी में!
हमारे एक पड़ोसी की एक नेताजी से पुरानी वाकफियत थी. वो अक्सर नेता जी से अपने इकलौते, बेरोज़गार बेटे की नौकरी लगवाने की दरख्वास्त करते पाए जाते थे और नेता जी का स्टैण्डर्ड जवाब होता था, “देखेंगे. कोशिश करेंगे.”
कोशिश का आश्वासन जारी रहा.
एक दिन पड़ोसी राह चलते नेताजी से टकराए तो इससे पहले कि पड़ोसी अपना पुराना राग अलापता, नेता जी जल्दी से बोले, “भई, हमें तुम्हारे लड़के का पूरा खयाल है. हम जरूर कुछ करेंगे.”
नहीं, नहीं”, अप्रत्याशित उत्तर मिला, “अब कुछ करने की जरूरत नहीं. लड़के की सरकारी नौकरी लग गयी है.”
“अच्छा! ये तो गुड न्यूज़ है! क्या करता है?”
“क्या करता है, क्या मतलब?” पडोसी तमक कर बोले, “बोला न, सरकारी नौकरी लग गई है.”
हमारे एक दोस्त दफ्तर में कॉफ़ी नहीं पीते. वजह? अगर वो दफ्तर में कॉफ़ी पी लें तो उन्हें नींद नहीं आती. एक बार दोपहर से पहले ही दो कप कॉफ़ी पी लेने की हिमाकत कर बैठे तो सारा दिन उल्लुओं की तरह पलकें झपकाते, हसद और हसरतभरी निगाह से अपने उन साथियों को देखते रहे जो पंखों के नीचे, कूलरों के सामने खस की चिकों की खुशबूदार हवा के पहलु में फाइलों पर सिर टिकाये या मेजों पर पाँव फैलाये – अफसर लोग टेलीफोनों के रिसीवर ऑफ किये – गर्मियों की आलसभरी नींद का आनंद ले रहे थे. उस दिन के बाद आज का दिन है, उन्होंने दफ्तर में कॉफ़ी पीने की हिमाक़त नहीं की. अलबत्ता दही की लस्सी पीने से उन्हें कभी ऐतराज नहीं हुआ क्योंकि तब उन्हें नींद और भी मीठी और गहरी आती है.
हमारे एक दोस्त हैं सुरेश बाबू. जन्म से उनके दोनों कान नहीं हैं – गनीमत है की निगाह कमजोर नहीं है वरना चश्मा उनके चेहरे पर डोरी से बांधना पड़ता – बी.ए. पास करने के बाद, जूतियां चटकाने का तीन-चार साल का कोटा पूरा कर लेने के बाद उन्हें वित्त मंत्रालय से यू.डी.सी. की नौकरी के लिए कॉल आई. दफ्तर पहुँच कर रिपोर्ट किया तो तुरंत मेडिकल एग्जामिनेशन के लिए सरकारी डॉक्टर के पास भेज दिए गए. झिझकते, डरते डॉक्टर के हुजूर में पेश हुए कि कहीं कानों की गैरहाजिरी की वजह से सरकारी नौकरी के लिए अयोग्य घोषित न कर दिए जाएँ. .एहतियात के तौर पर इ.एन.टी.स्पेशलिस्ट का सर्टिफिकेट भी डॉक्टर को दिखाने के लिए साथ ले कर गए जो कहता था कि उनके बाहरी कान ही गायब थे, सुनाई उन्हें पूरा और ऐन चौकस देता था.
उनका मेडिकल एग्जामिनेशन निर्विघ्न समाप्त हुआ. सरकारी डॉक्टर ने बिना उनकी ‘मुश्किलों से मिली नौकरी की इन्तेहाई जरूरत’ की दुहाई सुने या ई.एन.टी. स्पेशलिस्ट का सर्टिफिकेट देखे उन्हें ‘मेडिकली फिट’ घोषित कर दिया. अलबत्ता डॉक्टर ने अपने विशेष नोट के तौर पर सर्टिफिकेट पर ये भी दर्ज किया कि प्रार्थी ‘फिजीकली हैंडीकैप्ड’ था, उसके दोनों कानों का वो हिस्सा गायब था जो उसे स्कूल में मास्टर जी की परम्परागत सजा पाने से हमेशा बचाता था.
सर्टिफिकेट लेकर सुरेश बाबू वापिस सेक्शन ऑफिसर के पास पहुंचे और फिटनेस सर्टिफिकेट पेश किया. सेक्शन ऑफिसर ने गौर से सर्टिफिकेट को पढ़ा, अपने असिस्टेंट से सुरेश बाबू का हाजिरी रजिस्टर में नाम दर्ज करवाया, और हुक्म फरमाया कि कल से वो दफ्तर में साढ़े ग्यारह बजे तशरीफ़ लाया करें.
“साढ़े ग्यारह बजे!” सुरेश बाबू सकपकाए, “तो क्या मेरी छुट्टी आठ बजे हुआ करेगी?”
“अरे नहीं भई,” सेक्शन ऑफिसर ने समझाया, “और मुलाजिमों के साथ तुम्हारी छुट्टी छ: बजे ही हुआ करेगी.”
“सर,” सुरेश बाबू झिझकते हुए बोले, “ दफ्तर खुलने का टाइम तो मुझे सुबह साढ़े नौ का बताया गया है!”
“ठीक बताया गया है. वो टाइम औरों के लिए है. वो तुम्हारे पर लागू नहीं है. तुम्हें साढ़े ग्यारह बजे दफ्तर आने की इजाजत है.”
“लेकिन . . . लेकिन सर . . . अगर . . . अगर गुस्ताखी न मानें तो क्या मैं वजह पूछ सकता हूँ?”
‘वजह मामूली है.” सेक्शन ऑफिसर लापरवाही से बोला, “अभी दो दिन दफ्तर आते तो खुद ही समझ जाते. वजह तुम्हारे कान हैं, सुरेश बाबू.”
“जी!”
“हाँ. वो क्या है कि मेरे सेक्शन के क्लर्क साढ़े नौ बजे दफ्तर आ जरूर जाते हैं लेकिन काम साढ़े ग्यारह से पहले कभी शुरू नहीं करते. साढ़े ग्यारह बजे तक तो वो अपनी-अपनी सीटों पर बैठे कान खुजलाते रहते हैं. तुम्हारे कान हैं नहीं तो तुम क्या खुजलाओगे? इसीलिए तुम्हें बोला गया है कि तुम साढ़े ग्यारह बजे ऑफिस आया करो.”
सुरेश बाबू की ज़िन्दगी का वो पहला मौका था जब उन्होंने अपने कानों की गैरमौजूदगी के लिए अपने बनाने वाले को नहीं कोसा.
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सरकारी दफ्तरों में जब मशीनीकरण का प्रस्ताव आया था तो सरकारी मुलाज़िमों को खबर लगी थी कि एक मशीन बीस आदमियों का काम करने की क्षमता रखती थी, यानी उन्नीस मुलाजिम गैरजरूरी. तब हर किसी को अपनी नौकरी खतरे में जान पड़ने लगी थी –
सिवाय दुनीचंद के.
उसे उसके अफसर ने अपने ऑफिस में तलब किया और मीठी फटकार लगाने के अंदाज़ से उसे समझाया, “अरे, दुनीचंद, तू क्यों घबराता है? भई, कंप्यूटर से तेरी नौकरी को कोई खतरा नहीं है. तेरी जगह तो कम्प्यूटर ले ही नहीं सकता क्योंकि आज तक दुनिया में ऐसा कोई कंप्यूटर नहीं बना जो कतई कुछ न करता हो.”
सरकारी दफ्तरों में कितना काम होता है, एक मर्तबा इस बात की जांच के लिए एक कमेटी बिठाई गयी. सर्वे शुरू हुआ. एक सर्वेअर नार्थ ब्लॉक के एक दफ्तर में पहुंचा.
“आप क्या काम करते हैं?” एक सेक्शन के एक यू.डी.सी. से उसने पूछा.
“कुछ नहीं.” यू.डी.सी. ने जम्हाई लेते हुए उत्तर दिया.
सर्वेअर ने जवाब अपनी डायरी में नोट किया.
“और आप क्या करते है?” उसने पहले क्लर्क के पड़ोसी क्लर्क से पूछा.
“कुछ नहीं.” जवाब मिला.
डुप्लीकेशन – सर्वेअर ने ख़ामोशी से अपनी डायरी में नोट किया - इस सेक्शन में एक ही काम को दो क्लर्क कर रहे हैं. एक क्लर्क गैरजरूरी है.
सर्वेअर एक अन्य सेक्शन में पहुंचा.
“आप क्या काम करते हैं?” वही सवाल उसने उस सेक्शन के एक क्लर्क से पूछा.
“कुछ नहीं.” पेटेंट जवाब मिला.
“और आप क्या करते है?” उसने पहले क्लर्क के पड़ोसी क्लर्क से पूछा.
“मैं काम में इनकी मदद करता हूँ.” दूसरा क्लर्क सहज भाव से बोला.
फेयर एनफ! वैरी नेचुरल! – सर्वेअर ने अपनी डायरी में लिखा.
एक बार बस में एक ऐसे सज्जन मिले जिन कि बाबत मुझे बताया गया कि गुजश्ता छब्बीस साल से उन्हों में अपनी सरकारी नौकरी से एक भी छुट्टी नहीं ली थी.
“कमाल है!” मैं हैरान हुए बिना न रह सका, “इतने लम्बे अरसे में एक बार भी आप ने छुट्टी नहीं ली?”
“नहीं ली, भई.” इत्मिनान से उन्होंने तस्दीक की.
“सर, यू मस्ट बी ए वेरी इनडिस्पेंसिबल पर्सन इन योर ऑफिस!” मैं प्रभावित स्वर में बोला, “जरूर आप के बिना दफ्तर का काम नहीं चलता होगा!”
वो हँसे, फिर बोले, “अरे, भई, हकीक़त ये है कि मेरे बिना दफ्तर का कोई काम रुकता नहीं. ये अहम बात मेरे अफसरों पर जाहिर न हो जाए कि मेरे आने न आने से वहां कोई फर्क नहीं पड़ता, मैं छुट्टी लेना अफोर्ड नहीं कर सकता.”
लिहाजा जब वो रिटायर होंगे तो अपने पीछे अपने महकमे में कोई वेकेंसी नहीं छोड़ेंगे.
एक बार सुरेश बाबू के साथ भारी जुल्म हो गया. साल के समापन पर उन की कन्फीडेंशल रिपोर्ट में उनके अफसर ने उन्हें ‘सी एंट्री’ दी जिस के अंतर्गत अफसर ने लिखा कि सुरेश बाबू का काम ठीक नहीं था. नियम के अनुसार उनको इस बारे में लिखित सूचना मिल गयी जिसे प्राप्त करते ही उनकी अधमुंदी आँखें पूरी खुल गयीं. उन्होंने प्रेमपत्र पढ़ा, दोबारा पढ़ा, चार सहकर्मियों से पढ़वा कर कनफर्म किया कि उसमें वही लिखा था जो वो पढ़ कर हटे थे. फिर मेज के दराज से निकाल कर अपने जूते पहने और क्रोध में आगबगूला होते हुए सीधे अफसर के कमरे में जा धुसे. अफसर ने हड़बड़ा कर सिर उठाया तो उन्होंने चिट्ठी अफसर के सामने मेज पर पटकी और गुस्से से बोले, “सर, ये आप ने क्या लिख डाला है मेरे बारे में?”
“भई”, अफसर बोला, “ठीक ही तो लिखा है कि तुम्हारा काम ठीक नहीं हैं!”
“पर आप ने जाना कैसे कि मेरा काम ठीक नहीं है?” सुरेश बाबू गरजे, “काम तो मैं करता ही नहीं!”
तबियत ख़राब होने की वजह से अगर कभी सुरेश बाबू छुट्टी लेकर घर बैठने का इरादा करें तो बीवी उसे अक्सर डांटती पाई जाती है, “तबियत ख़राब है तो घर बैठ कर मेरी जान क्यों खाते हो? दफ्तर जा कर आराम क्यों नहीं करते हो?”
एक सरकारी दफ्तर में बीस साल से कार्यरत माधो प्रसाद जी का एक बार तब एक्सीडेंट हो गया जब वो एक सरकारी बस में सवार हो कर शाम छ: बजे से पहले घर पहुँचने की अपनी पूर्वस्थापित कोशिश कर रहे थे. बेचारे रफ़्तार पकड़ती बस से ऐसे गिरे कि सीधे हस्पताल में पहुँच कर ही आँख खुली. दफ्तर के सहकर्मियों को उनके एक्सीडेंट की खबर लगी तो वो हस्पताल के उनके कमरे में सैलाब की तरह उमड़ पड़े. उनके सेक्शन का हर साथी हमदर्दी से लबरेज उन तक पहुंचा. सब उनकी हालत पर अफ़सोस जाहिर करने आये थे लेकिन जल्द ही वहां दफ्तर जैसा ही समां बंध गया. वही गगनभेदी अट्टहास – ‘साइलेंस प्लीज़’ के नोटिस की किसे परवाह थी – वही काम को, जरूरी काम को ज्यादा, लानत भेजने का रवैया, वही दफ्तर का वक़्त अपनी सीट के अलावा कहीं भी सर्फ़ कर देने की भरपूर कोशिश; फर्क था तो सिर्फ इतना कि हर कोई बैठा नहीं था, माधो प्रसाद जी बेड पर लेते हुए थे और उनके दफ्तर के दोस्त बेड के इर्द गिर्द खड़े थे.
फिर मुलाकात का वक़्त ख़त्म होने की सूचना देने वाली घंटी बजी.
दोस्तों के रुखसत पाने का वक़्त आया.
“माधो, भाई,” एक, मरीज से सीनियर और ज्यादा इंटिमेट, दोस्त ने मरीज़ को तसल्ली दी, “तू जो है न, दफ्तर के काम की कतई कोई फिक्र न करना. हम सब तेरे खैरख्वाह हैं इसलिए हम सब ने फैसला किया है कि जब तक तू ठीक नहीं हो जाता, तब तक दफ्तर का तेरा काम भी हम सब मिल बाँट कर कर लिया करेंगे – बस, सिर्फ हमें ये मालूम हो जाये सही कि दफ्तर में आखिर तू किया क्या करता था!”
विदेशों में अक्सर ऐसे समाचार सुनने को मिलते हैं कि फलां कम्पनी के कर्मचारियों ने मैनेजमेंट के खिलाफ तीव्र विरोध प्रकट करते हुए कहा कि उन्हें उनके काम के अनुसार वेतन मिलना चाहिए. अर्थात जितना काम, उतना वेतन. हमारे किसी सरकारी दफ्तर का कोई बाबू ऐसा नारा लगाने का हौसला नहीं कर सकता.
वजह?
एक तो सरकार ही ये शर्त स्वीकार नहीं करेगी – क्योंकि वो ‘न्युनतम वेतन’ के पूर्वस्थापित नियम में खिलाफ होगा – दूसरे, आप भी सवा तीन हज़ार रूपये महीने पर नौकरी करना कैसे स्वीकार कर लेंगे!
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