भारत में लेखन से भरपूर पैसा कमाना तरकीबन लेखकों के लिए डिस्टेंट ड्रीम है। इस सिलसिले में चेतन भगत, अमीश त्रिपाठी, देवदत्त पटनायक जैसे चंद लेखक खुशकिस्मत हैं लेकिन वो भी अगर मूलरूप से हिंदी के लेखक होते तो पैसे के मामले में हरगिज़ भी वो करतब न कर पाए होते जो उन्होंने इंगलिश में कर दिखाया, हालाँकि भगत को, त्रिपाठी को सब मीडियाकर लेखक करार देते हैं, पटनायक की मुझे खबर नहीं।

हिंदी में एक ही लेखक हुए हैं जिन्होंने बतौर उपन्यास लेखक चांदी काटी और वो थे गुलशन नंदा। बाकी हर दौर के लेखक – खाकसार समेत – उनसे पीछे थे, हैं और रहेंगे। कोई इसके विपरीत दावा करता है तो समझिये झूठ बोलता है।

उपरोक्त लेखकगण को अपवाद छोड़ कर कोई प्रकाशक किसी लेखक को मुंहमांगी उजरत नहीं देता। सब का 5 से 10 % रायल्टी का पैमाना फिक्स है, अलबत्ता बंगाल में सुना है, बस सुना है, कि लेखक को 20% तक रायल्टी मिलती है। हार्पर कॉलिंस, पेंगुइन, अमेज़न/वेस्टलैंड जैसे विदेशी जड़ों वाले कुछ प्रकाशकों को छोड़ कर कोई लेखक को – वो छोटा हो या बड़ा – ईमानदारी से रायल्टी नहीं देता। भगत, त्रिपाठी जैसे लेखकों के साथ ये प्रॉब्लम इसलिए नहीं है क्योंकि वो पहले ही प्रकाशक को इतना निचोड़ लेते हैं कि उनके साथ बेईमानी की गुंजाईश ही नहीं रहती। सर्वविदित है कि, पहले त्रिपाठी और अब हाल में भगत वेस्टलैंड से एकमुश्त 5 करोड रुपया एडवांस प्राप्त कर चुके हैं, जब कि खाकसार को इस मद में अकसर कोई झुनझुना नहीं थमाता। वो गनीमत जाने अगर स्क्रिप्ट सौंपते ही उजरत मिल जाए – COD (Cheque/Cash on delivery)। ZOMATO, SWIGGY, AMAJON की डोर-डिलीवरी की तरह।

सूरतअहवाल ये है कि हिंदी का लेखक लोलीपॉप से राज़ी हो जाता है। किताब छप जाए तो बाग़ बाग़ हो जाता है। चार सहयोगी लेखक– पाठक नहीं, वो नौबत आने में अभी लेखक को बहुत चाँद सूरज देखने होंगे – तारीफ कर दें तो समझता है कि अब कोई बड़ा पुरुस्कार उसे मिलना महज वक़्त की बात है। तदुपरांत उस बेतहाशा ख़ुशी को, उस हासिल तवज्जो को वो एक लम्बा अरसा ओढ़ता बिछाता और उसके बाद कहीं एक खुशगवार सुबह उसे याद आता है, अरे! वो तो लेखक है! उसे तो और लिखना है!

और वो और लिखने की तैयारी में डूबना-उतराना शुरू करता है।

किसी ज्ञानी पुरुष ने कहा है कि किसी लेखक ने पांच साल से अगर कुछ न लिखा हो तो उसकी नब्ज देखनी चाहिए, क्या पता वो मर गया हो!

हिंदी में बहुत लेखकों ने बहुत नाम कमाया है लेकिन अर्थोपार्जन अगर कर पाये तो अपनी मक़बूलियत को किसी और ही फील्ड में कैश कर के कर पाए, जैसे मनोहर श्याम जोशी सालों ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ से संपादक, यानी बिरला के मुलाजिम, रहे और ‘हमलोग’ और ‘बुनियाद’ जैसे टीवी ब्लॉकबस्टर लिख कर भरपूर नाम और दाम दोनों के भागी बने। कमलेश्वर ने फिल्मों से कमाया, टाइम्स ग्रुप की शानदार पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक रहे और दूरदर्शन में एडिशनल डायरेक्टर जनरल के पद पर भी आसीन हुए। उपेन्द्र नाथ अश्क, राजेंद्र यादव ने अपना प्रकाशन खड़ा कर लिया, धर्मवीर भारती ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप की नौकरी कर ली। मोहन राकेश लेखन के साथ साथ डीएवी  कॉलेज, जालंधर में तब प्रोफेसर रहे जब कि मैं भी वहां विद्यार्थी था (1958 –61) लेकिन उन्होंने टिककर कोई नौकरी नहीं की, रवीन्द्र कालिया डीएवी कॉलेज, जलंधर में मेरे साथ पढ़े और फिर प्रोफेसर रहे, फिर प्रिंटिंग प्रेस चलाते रहे। शरद जोशी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, भोपाल में अधिकारी थे। ऐसी और भी बेशुमार मिसाल हैं। खुद खाकसार को लेखन से ज्यादा सिक्योरिटी सरकारी नौकरी में जान पड़ती थी जो उसने 34 साल की। मेरी जानकारी में कोई एक भी खालिस साहित्यकार नहीं है जो केवल साहित्य सृजन से घर की रोजीरोटी चला पाने में सक्षम हो, जब कि लीगल थ्रिलर्स लिखने वाले जॉन ग्रिशिम जैसे विदेशी लेखक लेखन की कमाई से हवाई जहाज रखने की क्षमता रखते हैं। जेके रालिंग हैरी पॉटर बुक्स के सदके मलिका एलिज़ाबेथ से ज्यादा धनवान मानी जाती हैं, पैरी मेसन के प्रणेता अर्ल स्टेनले गार्डनर लेखन के सदके एक आइलैंड के मालिक थे।

उपरोक्त से पहले मुझे ये बात दर्ज करनी चाहिए थी कि वर्तमान में लोकप्रिय साहित्य का कोई मुकाम नहीं हैं। जो व्यापार पिछली सदी के अस्सी और नब्बे के दशक में बेतहाशा पनपा, तदुपरांत जल्दी ही अपनी आई मौत मर गया। न वैसा लिखने वाले लेखक रहे, न प्रकाशक रहे। मैं इकलौता कैजुअल्टी  बनने से इसलिए बच गया क्योंकि वक़्त रहते चेत गया, मैंने डायवर्सिफिकेशन का रास्ता पकड़ा और मेरे उपन्यास हार्पर कॉलिंस और वेस्टलैंड में छपे और पेंगुइन में अभी भी छप रहे हैं। यूँ सालों से मेरी  जात औकात को हिकारत की निगाह से नवाजता ‘लोकप्रिय लेखक’ का ठप्पा भी मेरे पर से हटा और मुझे भी बतौर लेखक किसी काबिल माना जाने लगा। अब जो गिनती के लेखक खुद को लोकप्रिय साहित्य (!) के झंडाबरदार समझते हैं, वो या तो अपने उपन्यास खुद छापते है या पल्ले से पैसे दे कर छपवाते हैं। और जो प्रकाशक पकड़ते हैं, उनकी लेखक जितनी भी हैसियत नहीं होती। बस एक शौक है लेखक कहलाने का जिसे वो इस तरीका से पूरा कर लेते हैं,  खुद को लेखक राम कुमार या ऑथर श्याम कुमार ऐसे लिखते हैं, जैसे लेखक कोई अकादमिक डिग्री हो जो डाक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों जैसी लम्बी और मुश्किल पढाई करने के बाद हासिल होती है। डॉक्टर फलाना, एडवोकेट फलाना, की तरह अब लेखक फलाना भी नए लेखक अपने आप को आम कहने लगे हैं।

अत्यंत संकोच से कहता हूँ कि एक मैं ही अपवाद हूँ वरना कोई हिंदी उपन्यास हाथोंहाथ नहीं बिकता, यों बिकना तो दूर पुस्तक मेलों का और लायब्रेरियों का आसरा न हो तो बिकता ही नहीं। लेखक सिर्फ छपास का सुख पा सकता है, लोकप्रियता का नहीं। ऐसे छपासप्रिय लेखकों की एक जमात है जिन का कारोबार रीडिंग पब्लिक में जगह बनाना नहीं हैं, एक दूसरे से वाहवाही का आदानप्रदान करना है।

यानी – ‘यू स्क्रैच माई बैक, आई स्क्रैच योर बैक’ के नियम तो सब्सक्राइब करना है।

बल्क में कैसे लिखा जाता है, एक जुनून के हवाले कैसे लिखा जाता है, लेखन को लग्जरी न मान कर एक ‘जॉब ऑफ़ वर्क’ की तरह कैसे लिखा जाता है, इसके सन्दर्भ में मैं अर्ज करना चाहता हूँ की कैसे मेरी आत्मकथा वजूद में आई। काबिलेज़िक्र बात ये है कि आत्मकथा लिखने का ख़याल मेरे को सपने में भी नहीं आने वाला था। पिछले कुछ सालों में नाहक ही आननफानन कई बायो छपने लगी थीं और कई चल भी गयीं थी तो मेरे वेस्टलैंड के संपादक ने जैसे मेरी बांह मरोड़ कर बायो लिखने के लिए मुझे मजबूर किया था जब कि मेरी निरंतर दुहाई थी कि मैं बायो नहीं लिख सकता था, मेरी गुज़श्ता ज़िन्दगी इतनी एवेंटफुल नहीं थी की बायो में उकेरी जाती। लेकिन संपादक की जिद के आगे मुझे हथियार डालने पड़े और मैंने इस चेतावनी के साथ बायो लिखना शुरु किया कि 50 पेज से ज्यादा नहीं लिख पाऊंगा। जान कर हाथ खड़े कर दूंगा। तैयारी के खाते में बाज़ार में तब जितनी भी बायो उपलब्ध थीं, सब खरीद लाया ताकि इल्म हासिल कर पाता कि बायो कैसे लिखी जाती थी लेकिन फिर सोचा पहले जो लिखा जाता है, वो तो लिखूं! नतीजतन जब लिखना शुरू किया तो कोई बायो पढने की नौबत ही न आयी, बिना ब्रेक के कोई ढाई महीने में मैंने 1300 प्रिंटेड पेजेज के बराबर कागज काले कर दिए, जबकि न मैंने तब तक कभी कोई बायो पढ़ी थी और न अब, ढेर सारी बायो खरीद लाने के बावजूद, किसी का वरका भी खोला था।

[]

किसी स्थापित लेखक की ट्रेड में कितनी महिम समझी जाती है!

उसका प्रकाशकों में काबिलेरश्क दबदबा होता है, हर कोई उसे हाथोहाथ लेता है वगैरह। खाकसार को भी खुशफहमी है कि वो एक स्थापित लेखक है, प्रकाशकों की निगाह में उसका कोई दर्जा है। कैसा दर्जा है, ये इस बात से समझिये कि सन 2017 के अक्तूबर तक मैंने बायो के तीनों भाग लिख लिए थे और अब सन 2020 का मिडिल है और तीसरे भाग की स्क्रिप्ट अभी भी मेरे पास है।

क्या इसी को कहते हैं प्रकाशकों का लेखक को हाथोंहाथ लेना?

साठ साल लेखन में गर्क किये, आधी उम्र किसी मुकाम तक पहुँचने में लग गयी, पाठक खाकसार को लीजेंड के टाइटल से नवाजने लगे, लेकिन नामुराद, नामोनिहाद लीजेंड को कभी भी अपने पाँव प्रकाशन के क्षेत्र की धरती पर मजबूती से टिके न लगे। हमेशा ये समस्या सामने रही कि अगला उपन्यास कब छपेगा, कहाँ छपेगा, छपेगा भी या नहीं!

बस इतनी ही औकात है हिंदी के लेखक की।

जब कि हिंदी दुनिया की तीसरी सब से ज्यादा बोली वाली भाषा करार दी जाती है, लेकिन अपने देश में अंग्रेजी से सामने ‘आल्सो रैन’ के अलावा कुछ नहीं।

मैं इस बात को बड़ी शिद्दत से अंडरलाइन करता हूँ मैंने कभी रिलैक्स नहीं किया, मुझे पता ही नहीं रिलैक्स कैसे करते हैं। लोकाचार में पूछा जाता है ‘जनाब, क्या कर रहे हैं?’ जवाब मिलता है ‘रिलैक्स कर रहे थे, जी’। मैं हैरान होता हूँ, खुद से सवाल करता हूँ – रिलैक्स कैसे करते हैं? अगर कुछ न करना रिलैक्स करना कहलाता है तो मेरे को तो ये लक्ज़री रास नहीं आने वाली। मैंने तो ताजिंदगी टाइम का अर्क निकलने में ही गुजारी है। वक़्त जाया करना मुझे हमेशा कार्डिनल सिन लगा है। मेरी समझ में तो वक़्त ही वो शै है जिससे ज़िन्दगी बनती है। शायद मैं ही गलत था। मुझे रिलैक्स करना चाहिए था लेकिन ऐसा कोई उस्ताद तो कभी न मिला जो रिलैक्स करने के फाइन आर्ट पर रौशनी डाल पाता। खैर, जो हुनर अब तक काबू में न आया, वो अब आगे भी क्या आएगा! लिहाज़ा बची खुची ज़िन्दगी मैं ‘ऑन टोज़’  ही ठीक हूँ।

लोकप्रिय लेखक और मुख्य धारा के लेखक जैसे टाइटल्स में मेरा कोई ऐतबार नहीं। ये फर्क साहित्यिक लेखकों ने अपने आप को खुद महिमामंडित करने के लिए बनाया है, हमेशा ये जाहिर करने की कोशिश की है कि उनका साहित्य कुलीन, क्लीन हाउसवाइफ है और लोकप्रिय लेखन बाजारू औरत है, हार्लोट (HARLOT) है; वो ही सवर्ण हैं बाकी सब अछूत हैं। मैं ऐसी किसी लाइन ऑफ़ डिमार्केशन से कभी सहमत नहीं हो सकता। मेरी राय में जो लिखता है, वो लेखक है और हर उस सम्मान और तवज्जो का अधिकारी है जिस का कि कोई भी दूसरा लेखक है। किसी के क्रिएटिव जोशोखरोश पर अंकुश लगाना गलत है। कोई किसी के लिखे से इत्तफाक नहीं रखता तो वो उसे न पढ़े, किसी को ये फ़तवा सुनाना कैसे न्ययोचित ठहराया जा सकता है कि वो लिखना बंद कर दे। टीवी पर हज़ार चैनेल आती हैं, क्या कोई सब देखता है? वो वही तो देखता है जो उसे पसंद आती हैं! जो नापसंद आती हैं, उनका ब्रॉडकास्ट बंद होना चाहिए, ऐसा कौन कहता है? कहता है तो क्या कोई कबूल कर लेता है?

कोई मकबूल लेखक किसी को घर घर कहने नहीं जाता कि वो बढ़िया लिखता है, हर कोई उसे पढ़े। उसें क्या पढ़ना है, क्या पसंद कर के पढना है ये पाठक का निजी फैसला है, इस बाबत उसे कोई डिक्टेट नहीं कर सकता। ऐसा किया जाना मुमकिन होता तो सारे प्रकाशक अपने टूटे फूटे लेखकों को भी यूँ प्रमोट कर रहे होते और चांदी काट रहे होते।

ये बात निश्चित जानिये कि प्रकाशक किसी को मकबूल, हरदिलअज़ीज़ लेखक नहीं बनाता, न ही बना सकता है, पाठक ऐसा करता है। और पाठक की निष्ठा खरीदी नहीं जा सकती, उसे गुमराह नहीं किया जा सकता कि वो फलां लेखक को न पढ़े उस में कुछ नहीं रखा, फलां लेखक को पढ़े क्योंकि वो ही सर्फ़ से धुला है और कपड़ों को दाग नहीं लगाता।

साहित्यकार अपनी रचना को किसी ऊंचे पेड़ेस्ट्रल पर आसीन कर के उसकी आरती उतरना चाहते हैं और पाठकों से भी यही उम्मीद करते हैं, जबकि मैं पाठक को कंस्यूमर मानता हूँ, पुस्तक को प्रोडक्ट मानता हूँ, और खुद को मैन्युफैक्चरर मानता हूँ। विचार कीजिए और फिर फैसला कीजिये कि क्या हर्ज है इस इक्वेशन में!

एक आखिरी बात मैं और दाखिलदफ्तर करना चाहता हूँ :

मैंने कभी ये दावा नहीं किया कि मैं बहुत अच्छा लेखक हूँ, लेकिन ये दावा मैंने अक्सर किया है कि मैं बहुत सिंसियर लेखक हूँ। मैं लेखक होने से बेहतर जागरूक, गुणग्राहक पाठक हूँ और समझता हूँ कि अच्छा पाठक ही अच्छा लेखक बन सकता है। मैंने अपनी किशोरावस्था से नौजवानी में कदम रखने तक ही इतना पढ़ा था कि यूं समझिये की ओवरफ्लो ने मुझे लेखक बनने के लिए प्रेरित किया, लेखक बना दिया। मेरे कई नौजवान साहित्यकर वाकिफ हैं जो एक पुस्तक लिख कर उसकी  लोकप्रियता को -अगरचे कि की वो लोकप्रिय हो जाये- इतना लम्बा ओढ़ते-बिछाते हैं कि चार पांच साल दूसरी रचना लिखना जरूरी नहीं समझते। फिर उम्रदराज साहित्यकार हैं जिन को खुशफहमी है कि वो ढेर लिख चुके, लिखने लायक भी सब लिख चुके अब और क्या लिखना!

उपरोक्त के विपरीत प्रेमचंद के इस कथन पर गौर फरमाइए :

“जिस दिन मैं लिखता नहीं, उस दिन मैं अपने आप को रोटी खाने का हक़दार नहीं समझता।”

इस का क्या मतलब हुआ? इस का मेरी तुच्छ राय में ये मतलब हुआ कि लेखकों की जिस किस्म का मैंने ऊपर जिक्र किया उनके लिए लिखना लक्ज़री है, न कि  मशक्कत और जांमारी का काम है, न कि एक्ट ऑफ़ कमिटमेंट है, न कि ए जॉब ऑफ़ वर्क है।

बहरहाल टु ईच हिज ओन। अपने अपने तौर पर हर कोई बहलाता है दिल।

सुरेन्द्र मोहन पाठक


Note: This article was published on Jankipul.