28 सितंबर 2024 को मेरी आत्मकथा के चौथे खंड का विमोचन प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, नई दिल्ली में आयोजित था। आयोजन साहित्य विमर्श प्रकाशन की ओर से था जिसके सारे सहभागी एसएमपियंस हैं और जिन से मैं वाकिफ हूँ। लेकिन प्रकाशन अभी कदरन नया है इसलिए कोई बड़ी किताब छापना उनके लिए हौसले का काम है। लिहाजा मैंने उन्हें हतोत्साहित करने की कोशिश की कि ऐसा कोई आयोजन जरूरी नहीं था इसलिए नाहक एक ऐसे बड़े खर्चे से बचें जिसका हासिल संदिग्ध था। मेरा खुद का अंदेशा ये था कि पता नहीं कोई आएगा भी या नहीं, मैं खुद को दस बीस लोगों के सामने बैठा ही न पाऊँ। लेकिन प्रकाशक इस बारे में बहुत उत्साहित था, उसने कम से कम सौ लोगों की हाजिरी की गारंटी की। मैं ने ये सोच के उसकी बात कुबूल की कि आधे भी होंगे तो चलेगा। आयोजन के लिए उनकी निगाह आईटीओ पर स्थित गांधी भवन पर थी जो बड़ा, भव्य ऑडिटोरियम था जिसमें पचास साठ लोग बैठे पता भी न लगते इसलिए मैंने प्रेस क्लब का कॉन्फ़्रेंस हाल प्रस्तावित किया जो सीमित – पैंसठ – सीटों वाला था। मैं प्रेस क्लब का मेम्बर था इसलिए वो हाल मेरा देखा हुआ था। मैंने प्रकाशक को बुला कर वो हाल दिखाया जो उसे जंच गया। तत्काल उसने उसे 28 सितंबर सुबह साढ़े ग्यारह बजे के लिए बुक किया। यूं एक बड़ा काम फाइनल हुआ।

      लेकिन दो दिन बाद ही क्लब की तरफ से प्रकाशक को फोन आ गया कि उस रोज क्लब की ऐन्यूअल जनरल बॉडी मीटिंग थी इसलिए प्रकाशक तारीख को आगे सरकाए। प्रकाशक तब तक आयोजन की तारीख, टाइम और वेन्यू प्रचारित भी कर चुका था, उसने विरोध किया तो ऑफर हुई कि टाइम को बढ़ा कर साढ़े बारह कर दिया जाए जोकि प्रकाशक को कुबूल हुआ। लेकिन टाइम बढ़ाने में भी एक फच्चर था। ढाई बजे किसी और ईवेंट के लिए हाल बुक था। लिहाजा प्रकाशक द्वारा सब कुछ दो घंटे में समेटा जाना लाजिमी था। ऐसी बैक-टु-बैक बुकिंग न हो तो मैनेजमेंट आयोजन के दो घंटों से आगे सरकते जाने को नजरअंदाज़ करता था लेकिन ये एडवान्टेज प्रकाशक को हासिल न हो पाई।

      अब मेहमानों की सुनिए।

      आयोजन की घोषणा आम होते ही इतने लोगों का हाजिरी की बाबत रिस्पांस हासिल हुआ कि उसको कंट्रोल किया जाना जरूरी हो गया। तब प्रकाशन में एक फॉर्म जारी किया जिसका अहम सवाल ये था कि आप क्यों आना चाहते है। फॉर्म मैंने आज तक भी नहीं देखा इसलिए मुझे खबर नहीं कि उसमें और क्या पूछा गया था। बहरहाल एक पाबंदी की मुझे खबर है कि जो आए, अकेला आए, यार दोस्तों को या परिवार के सदस्यों को साथ लेकर न आए। कई लोकल मेहमान सपत्नीक आना चाहते थे, कुछ पिता या आप-बराबर पुत्र के साथ आना चाहते थे, हाल की लिमिटेड कपैसिटी की दुहाई दे कर उन्हें ऐसा करने के लिए मना किया गया। फिर भी जब वक्त आया तो देखा गया कि हर किसी ने उस हिदायत पर अमल नहीं किया था। खुद मैंने ही नहीं किया था, मेरे साथ पुत्री रीमा थी, लेकिन मेरा केस जुदा था। ये सर्वविदित था कि मैं एस्कॉर्ट के बिना कहीं आ जा नहीं सकता था। फिर मैं मैं था, मेरा दर्जा शमा-ए-महफ़िल का था, मेरे पर कोई रूल लागू कैसे किया जा सकता था।    

बहरहाल एक्स्टेन्सिव सेंसर के बाद प्रकाशक ने सौ इन्विटेशन फॉरवर्ड किए। हाल में पैंसठ के लिए सीटिंग का इंतजाम था, बाकी के पैंतीस एज़ल में खड़े हो सकते थे। फ्री एंट्री थी, ऐसा वो नागवार पाते तो क्विट कर सकते थे लेकिन ऐसी नौबत बिलकुल न आई, किसी को खड़ा रहने में कतई कोई ऐतराज न हुआ। फिर बाद में प्रकाशक की ओर से जलपान का इंतजाम था जिसके दौरान हर किसी ने वैसे भी खड़ा ही रहना थाक्योंकि हाल में खान पान का सामान ले जाना मना था।

आयोजन से तीन दिन पहले मुझे खबर मिली कि पुस्तक विमोचन की सदारत के लिए वरिष्ठ हिन्दी लेखिका ममता कालिया को इनवाइट किया गया था और इन्विटेशन कुबूल भी हो चुका था। मुझे बहुत खुशी हुई। वजह ये थी कि कई साल से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए मैं मैडम के संपर्क में था लेकिन कभी भी रूबरू मुलाकात का इत्तफाक नहीं हुआ था। मैं उनका, उनके दिवंगत पति और उन जितने ही प्रसिद्ध लेखक रवींद्र कालिया का पाठक था, उन्होंने कभी मेरी लिखी कोई किताब पढ़ी या नहीं, मुझे खबर नहीं। अब उनसे रूबरू मुलाकात का एक मौका मुझे मिलने जा रहा था।

रीमा के साथ मैं बारह बजे क्लब में पहुँचा, तो कार से उतरते ही जो पहली सूरत मुझे दिखाई दी, वो सदा जवान कुलजी थे (कुलभूषण चौहान)। मुझे बहुत खुशी हुई। अच्छा संयोग था खास लोगों की हाजिरी में खासुलखास मुझे पहले मिला। फिर वही मुझे पहली मंजिल पर ले के गया जहाँ कि कॉन्फ्रेंस हाल वाकया था। ऊपर तक पच्चीस सीढ़ियाँ थीं जो मेरा ईश्वर जानता है मैंने कैसे तय कीं। मेरे फेफड़ों की क्षमता कमजोर है, वर्टिकल मैं जवानी में भी नहीं जा पाता था, अब तो ओल्ड एज भी वजह है, ज्यादा अहम वजह है। यहीं अर्ज है कि वो सीढ़ियाँ मुझे दो बार चढ़नी उतरनी पड़ीं। फर्स्ट फ्लोर पर टॉयलेट नहीं था, उसके लिए एक बार नीचे मजबूरन जाना पड़ा। मैं क्लब का बहुत पुराना मेम्बर था लेकिन सालों से मेरा पहली मंजिल पर जाने का इत्तफाक नहीं हुआ था। हाल के अलावा ऊपर अकाउंट ऑफिस था जहाँ बिल की किसी विसंगति को कवर करने के लिए जाना पड़ता था लेकिन वो नौबत आने पर मैं डीलिंग क्लर्क को नीचे बुलाता था जो मेरा लिहाज करता था  कि आ भी जाता था।  

ईवेंट के आगाज़ में अभी वक्त था इसलिए मैंने जनाबेहाजरीन से वाकफियत करने की  कोशिश की। आधे के करीब साहबान से मैं पहले से वाकिफ था, कितने ही वाकिफ नावाकिफ, लोकल आउटसाइडर खास मेरी वजह से वहाँ मौजूद थे, जिन को वो ईवेंट अटेन्ड करने के अलावा दिल्ली में कोई काम नहीं था। बाहर से आए मेहरबान लखनऊ, कानपुर, बरेली, रामपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, कोलकाता, अहमदाबाद, बनारस, हजारीबाग, रांची, भोपाल, रायपुर, जबलपुर, जमशेदपुर, धुले, सीतापुर, चित्रकूट, जम्मू, श्रीगंगानगर, नंगल, भटिंडा, पटियाला, चंडीगढ़, मोहाली, गुना, देहरादून, हल्द्वानी, काशीपुर, झुंझुनू जैसी जगहों से थे। मैं खुश था कि सब मेरे से मिल के खुश थे।

सब से ज्यादा हैरान – और खुश – करने वाली हाजिरी मेरे अज़ीज़ विशी सिन्हा की थी जो ईवेंट से हफ्ता पहले मुझे बता चुका था कि वो नहीं आ सकता था क्योंकि उसी दिन उसकी इलाहाबाद में बहुत जरूरी हाजिरी थी और इलाहाबाद का वो टिकट भी मँगवा चुका था। उसने कहा कि 28 तारीख को हाजिर न होने का उसे अफसोस था, जवाब में मैंने कहा कि मुझे ज्यादा अफसोस था। ये बात विशी के दिल को लगी और आखिर उसने अपना इलाहाबाद जाना कैन्सल कर दिया लेकिन इस बाबत खबर मुझे तभी लगी जब वो मुझे हाल में दाखिल होता दिखाई दिया। मैं बाग बाग हो गया। ये बड़ा एग्ज़ीक्यूटिव डिसीज़न था जो उसने मेरी खातिर लिया था। पंजाब में ऐसे ही नहीं कहते – सानु सजना बाज हनेरा ते चन्न भावें नित चड़दा।

शरद श्रीवास्तव की वहाँ हाजिरी भी मन मोह लेने वाली थी। मेरे को फोकस बना के इवेंट्स करने के शरद जी ओरीजिनेटर थे, कई साल मुतवातर वास्ता रहा लेकिन फिर एकाएक गायब हो गए। होली, दीवाली की मुलाकात भी मुमकिन न रही। पहले दिल्ली से शिफ्ट कर के सोनीपत चले गए इसलिए फासले की वजह से भी दूर हो गए। फिर दिल्ली का अपना ऑफिस भी शायद गुड़गाँव शिफ्ट कर लिया, यानी किसी लिहाज से भी दिल्ली के न रहे। मैंने एकाएक उन्हें वहाँ देखा तो ऐसा अहसास हुआ जैसे कि कोई मेले में बिछुड़ा करीबी मिला हो।

अब ओरीजिनल कोरम काल में एक ही शख्स की कमी थी लेकिन उसकी वहाँ हाजिरी नामुमकिन थी। वो थे स्थायी रूप से ऑस्ट्रेलिया वासी, लेकिन मूलरूप से रोहतक के निवासी, वहाँ की फौज के मेजर सुधीर बड़क। साल में एक फेरा उनका घर का लगता था और पिछले बीस सालों में हर बार ऐसा इत्तफाक हुआ कि जब भी मेरे लिए कोई ईवेंट ऑर्गेनाइज़ की गई, वो उसमें शामिल होने के लिए अपने सालाना फेरे पर भारत में थे।

क्योंकि सारा इंतजाम प्रकाशक का था इसलिए लेखक से किसी छोटे मोटे इंटरव्यू का संयोजन करने का और कोई ईवेंट को कन्डक्ट करने वाला खड़ा करने का जिम्मा भी उसका था। प्रकाशक ने एक वन-बुक-वंडर पक्के साहित्यकार का नाम सुझाया जो पहले कई बार ये काम कर चुके थे इसलिए मुल्ला की दौड़ मस्जिद के अंदाज से उसे वो एक ही नाम सूझा और ऐन इसी वजह से मैंने ऐतराज खड़ा किया। बार बार एक ही जना वो जिम्मेदारी निभाता दिखाई दे तो गलत सिग्नल पहुंचता था कि उस एक के बिना मेरी गति ही नहीं थी। तब बगल में छोरा शहर ढिंढोरा को सार्थक करती आवाज बुलंद हुई, “मुबारक अली हाजिर हो!”

मुबारक अली युवा, अनुभवी पत्रकार था, कई साल लल्लनटॉप में सक्रिय रहा था, दो बार - एक बार स्टूडियो में और दूसरी बार इंडिया टुडे की ऐन्यूअल लिटरेरी ईवेंट में लल्लनटॉप की आउटडोर स्टेज पर – मेरे लम्बे इंटरव्यू कन्डक्ट कर चुका था। और सौ बातों की एक बात, हमारे इनर ग्रुप में था। उसने बहुत सलीके और शऊर से उस काम को अंजाम दिया।

ठीक साढ़े बारह बजे प्रोग्राम के आगाज के इशारे के तौर पर ममता जी को सदारत के लिए मंच पर विराजने को कहा गया। उनके बाएं बाजू मैंने मुकाम पाया और मेरे बाएं बाजू सुहैब अहमद फारुकी और शरद श्रीवास्तव विराजे। दाईं ओर सिरे पर प्रकाशन के प्रमुख प्रतिनिधि राघवेंद्र सिंह ने आसन ग्रहण किया। प्रोग्राम की शुरुआत ममता जी के ‘दो शब्द’ से हुई। कोई पाँच मिनट वो बोलीं। जो वो बोलीं उसका कोई आनंद उठाने से मैं वंचित रहा। वजह मेरा बहरापन था। मेरे दोनों कान बहरे हैं, बाएं में हियरिंग ऐड लगा कर जैसे तैसे कुछ सुन पाता हूँ। मेरा दायाँ, फुल बहरा, कान ममता जी की तरफ था इसलिए उनके भाषण का मैं कोई आनंद न उठा पाया जिसका मुझे भारी अफसोस था। लेकिन मुलाहजे का काम था इसलिए जाहिर था कि कुछ अच्छा अच्छा ही कहा होगा। ड्यूटी बाउन्ड कामों का ऐसा मिजाज होना लाजिमी होता है। बहरहाल प्रोग्राम की वीडियो रिकॉर्डिंग अभी उपलब्ध नहीं, जब होगी तो मुझे उनको सुनने का विलंबित अवसर मिलेगा।

ममता जी की किसी वैसे ही दूसरे साहित्यिक समारोह में हाजिरी थी इसलिए ज्यादा देर वो वहाँ न टिकीं - टिक पातीं तो खुशी होती - बस अपना आख्यान समाप्त किया और रुखसत पाई। पीछे मैदान मुबारक अली के काबू में था। मुबारक ने प्रोग्राम को निहायत खूबसूरती से कन्डक्ट किया और फिर मेरा एक इंटरव्यू लिया जिसकी प्रश्नावली वो पहले से तैयार कर के लाया था। इंटरव्यू शुरू करने से पहले उसने मुझे खबरदार किया कि लम्बी प्रश्नावली थी, वक्त के दवाब की वजह से जिस का एक बटा तीन भी मुबारक खड़े न कर पाया। सवाल कैसे होने वाले थे, अपने जाती तजुर्बे से उन का काफी हद तक अंदाज मुझे था  इसलिए मैंने कुछ नोट्स तैयार किए थे, भले ही उनकी जरूरत न पड़ती। इम्तहान में नकल मारने के लिए जैसे फर्रे तैयार किए जाते हैं, वैसे हिंट मैं अपने लिए लिख के लाया था। मुझे भी अफसोस था कि समयाभाव के कारण मेरी पूरी तैयारी काम न आई, फिर भी इन्टरव्यू जितना चला, उम्दा चला। वक्त होता तो जनाबेहाजरीन से सवाल जवाब का भी सिलसिला चलता लेकिन उसकी नौबत ही न आई। फिर भी जो बीती, अच्छी बीती।

अपने मंच संचालक और साक्षात्कारकर्ता के रोल के बीच उसने क्विज़ मास्टर का रोल भी अदा किया, मेरे उपन्यासों और किरदारों की बाबत ऑडियंस से पाँच सवाल पूछे लेकिन उस सेशन के दौरान मैं हाल में नहीं था, टॉयलेट की विज़िट के लिए नीचे गया हुआ था। मेरी गैरहाजिरी में वो सेशन कैसा चला था, उसकी खबर भी मुझे वीडियो रिकॉर्डिंग उपलब्ध होने पर ही मिलेगी।       

वेन्यू क्योंकि प्रेस क्लब का हाल था और दोपहर के वक्त मेम्बरान की क्लब में काफी हाजिरी होती थी इसलिए दो तीन पत्रकार वहाँ बिन बुलाए चले आए। वो कोई हर्ज की बात नहीं थी लेकिन दिल छोटा करने वाली बात ये थी कि मैं तिरेपन साल से क्लब का मेम्बर था और फ्रीक्वेन्ट विज़िटर था, मुझे किसी ने क्लब के मेम्बर के तौर पर न पहचाना, बस यही जाना कि ये शख्स कोई लेखक था, इसकी लिखी एक किताब के विमोचन का वहाँ फंक्शन था।

जलपान से मेरा कोई लेना देना नहीं था, मुझे एक मशीनी गुड्डे की तरह एक दूसरे, छोटे, हाल के एक कोने में बिठा दिया गया, हाथ में एक कलम थमा दी गई और प्रोग्राम्ड रोबोट की तरह मैंने हर किसी के हाथ में मौजूद बायो-4 – पानी केरा बुदबुदा – पर साइन करने शुरू किए। किसी ने प्रशंसकों को पहले ही चेतावनी जारी कर दी थी कि लेखक सिर्फ साइन करेगा, उसको साइन के साथ कुछ लिखने के लिए न कहें। प्रशंसकों ने वो बात मानी सिर्फ साइन कुबूल किए लेकिन कइयों का दिल इतने से न बहला, वो लौट कर आने लगे और फिर मनुहार करने लगे कि मैं उनका नाम भी लिख दूँ, उनके लिए कोई संदेश भी लिख दूँ। मैंने सब किया, किसी को नाउम्मीद न किया और तब तक कलम चलाई जब तक मेरे हाथ जवाब न देने लगे, उनमें कलम थामे रहने की ताकत न बची। मेरी रोने जैसी हालत हो गई तब जा के वो सिलसिला खत्म हुआ।

उस रोज के सेशन ने जिन दो कामों ने मुझे हद से ज्यादा थकाया, वो थे - सौ सीढ़ियाँ चढ़ना-उतरना और इतनी . . . इतनी किताबें इतने कम वक्त में एंडोर्स करना।

अब अपने सुबुद्ध पाठकों के मनन के लिए यहाँ मैं बायोज़ के बारे में कुछ कोट्स दर्ज करना चाहता हूँ। गौर फरमाइए :

·        आत्मकथाएं अमूमन ऐसे लोगों द्वारा लिखी जाती हैँ जो या अपनी याददाश्त खो चुके होते हैँ या उनकी ज़िंदगी में याद रखने लायक कुछ घटा ही नहीं होता।

         ऑस्कर वाइल्ड

·         बायो पर ऐतबार तभी लाया जा सकता है जबकि उसमें ऐसी बातें दर्ज हों जिनको छुपा के रखना जरूरी होता है।

 जॉर्ज ऑरवेल

·       बायो माकूल और मजबूत जरिया है दूसरों के बारे में सच बोलने का, अपने बारे में नहीं।

   फिलिप गोडाला  

·       अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? अगर आप किसी को भड़काने, आंदोलित करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरर्थक है।

   सलमान रुशदी

·       मैं नहीं समझता कि किसी को तब तक अपनी आत्मकथा लिखनी चाहिए जब तक कि वो स्वर्ग न सिधार चुका हो।  

 सैमुएल गोल्डविन

·        आत्मकथा झूठ बोलने का सबसे इज्जतदार तरीका है।

हम्फ्री कारपेंटर

·       अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन जाती है तो मूढ़ और मूक जिबह को ले जाई  जाती बकरियों की तरह हाँके जा सकते हैं। 

  जॉर्ज वाशिंगटन

·       मेरे को आत्मकथा लिखने के लिए अनुबंधित किया गया है। अगर कोई सज्जन जानते हैँ कि मैं सन् 1860 और 1874 के बीच क्या कर रहा था तो तुरंत संपर्क करें।

  जॉर्ज बर्नार्ड शॉ

दशहरे, दीवाली की शुभकामनाओं सहित,


सुरेन्द्र मोहन पाठक

02.10.2024