Feedback on 'Colaba Conspiracy' - Part 1
कोलाबा कांस्पीरेसी
जीत सिंह के इस सातवें कारनामे को जो तारीफ और मकबूलियत हासिल हुई है, वो बेमिसाल है और उससे आप का लेखक गदगद है कि उसकी मेहनत रंग लायी । उपन्यास ने पाठकों को किस कदर प्रभावित किया, आत्मसात किया, उसकी ये भी मिसाल है कि 406 पृष्ठों में फैला कथानक पढ़ कर भी उसको ऐसा लगा कि अभी एक खंड और होना चाहिए था । बहरहाल अपने गुणग्राहक पाठकों की गुणग्राहकता के आगे मै नतमस्तक हूं और भविष्य में और भी अच्छा लिखने के लिए दृढ प्रतिज्ञ हूं ।
यहां इस पर खास बात का जिक्र भी अनुचित नहीं होगा कि उपन्यास की कामयाबी को कबूलते हुए प्रकाशक हार्पर कॉलिंस ने एक विज्ञापन जारी किया है कि उपन्यास के रिलीज होने के पहले ही सप्ताह में उपन्यास की 20,000 प्रतियां बिकीं । इतनी तेज रफ्तार बिक्री हिंदी पाकेट बुक के लिए एक नया कीर्तिमान है और इस यश का भागी आपका खादिम भी है ।
और भी खुशी की बात है कि उपन्यास की कीमत रूपये 125/- से किसी को कोई शिकायत न हुई क्योंकि पठनीय सामग्री भरपूर थी और उपन्यास की साज सज्जा काबिले तारीफ थी ।
‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ के पाठकों को कोई शिकायत हुई तो सिर्फ एक कि उसमें, अब तक मेरे उपन्यासों का ट्रेड मार्क बन चुका लेखकीय नहीं था ।
उपरोक्त कि वजह दो थीं: एक तो मैं प्रकाशक के मिजाज से वाकिफ नहीं था । नहीं जानता था कि उसको स्क्रिप्ट में ऐसा कोई इजाफा कबूल होता या न होता । दूसरे उपन्यास की पृष्ठ संख्या पहले ही काबू से बाहर हो गयी थी - इतनी कि प्रकाशक उसकी कीमत 150 रूपए रखने का मन बना रहा था । अब उसमें लेखकीय भी जुड़ता तो उसकी मंशा मजबूत हो के रहती कि उपन्यास की कीमत 150 रूपए होनी चाहिए थी ।
यहां ये बात भी गौरतलब है कि हिंदी के उपन्यास के लिए 125 रूपए कीमत भी करारी है लेकिन अभी हाल में जब इस उपन्यास का अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित होगा तो उसकी कीमत 250 रूपए होगी जबकि पृष्ठ संख्या भी कतरी गयी होगी ।
मेरे स्थायी विद्वान पाठक पिलानी के नयन सुख शर्मा को उपन्यास अच्छा और तेज रफ्तार लगा क्योंकि उनके कथनानुसार जीत सिंह पर सुनील या विमल जैसी बंदिशें नहीं हैं जिनमें बंध कर वो ‘आदर्श पात्र’ जैसी नैतिकता दिखाता । सुष्मिता से फिर मिलना उन्हें सुखकर लगा ।
शर्मा जी मेरी तरह ही कलम दवातिये हैं इसलिए मेरी ई-मेल आइडेंटिटी से वाकिफ होने के बावजूद उन्होंने उपन्यास के बारे में विस्तृत पत्र ही लिखा जिसके लिए मै उनका शुक्रगुजार हूं ।
साकेत अवस्थी ने ‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ को जीत सिंह का शानदार कारनामा करार दिया जिसने कि 'जीते को नया आयाम प्रदान किया है । बकौल उनके कहां एक वक्त जीता विमल की अंडरस्टडी लगने लगा था और कहां आज उसने अपना एक नया मुकाम हासिल कर लिया है । कहते हैं कि अगर जीता सुष्मिता को अपना लेता तो जीता ही खत्म था, फिर तो जीता एक मतलबपरस्त शख्स लगता, सुष्मिता के लिए लार टपकाता जान पड़ता - जैसा कि वो कभी था ।
जीतसिंह के किरदार के अलावा अवस्थी जी को कथानक में समाहित मर्डर मिस्ट्री ने भी खूब प्रभावित किया और इस मद में उन्होंने उपन्यास को बाकायदा 100 नंबर से पास किया । तेज रफ्तार घटनाक्रम, अच्छे सुघड़ किरदार उन्हें नावेल की जान लगे । अधिवक्ता गुंजन शाह ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया । गुंजन शाह के संदर्भ में सुष्मिता का किरदार उन्हें गोल्ड डिगर का लगा ।
हाल ही में सम्पर्क में आये मेरे पाठक ग्वालियर के के.के. दुबे ने ‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ को शाहकार का दर्जा दिया । बकौल उनके पिछले कुछ हद तक नर्म और सुस्त किस्सों के बाद उन्हें एकदम चुस्त और पुरसुकून कहानी पढ़ने को मिली जिससे उनका दिल खुश हुआ और मुझे इस दुआ से नवाजा कि ‘आप हमेशा जेहनी और जिस्मानी तौर पर चुस्त और तंदरुस्त रहें ताकि हम मतलबी सस्पेंस खोरों को खुराक मुहैया होती रहे’ ।
बीरगंज नेपाल के वीरेंद्र पटेल जो कि व्यवसायिक तौर पर केमिकल ऐनालिस्ट हैं, सन 1994 से मेरे नियमित पाठक हैं लेकिन ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ पढ़ने से पहले उनको मेरे से पत्राचार द्वारा सम्पर्क स्थापित करने का ख्याल ना आया । ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ ने उन्हें मजबूर किया मुझे मेल भेजने पर क्योंकि उपन्यास उन्हें 'फैंटैस्टिक' लगा और उन्होंने उसे एक ही बैठक में पढ़ा । उपन्यास जिन बिन्दुओं पर उन्हें अच्छा लगा वो हैं:
आखिर में जीते कि मिश्री से मुलाकात जिसने उन्हें जज्बाती कर दिया ।
उपन्यास के अंत तक कातिल की शिनाख्त को भांप पाना नामुमकिन था ।
आखिर में जीते का सुष्मिता को 'रिजेक्ट' करना उन्हें बहुत भाया ।
जो बातें उन्हें खली, वो हैं:
उपन्यास में 'लेखकीय' का न होना ।
जीतसिंह और राजा राम लोखंडे की जुगलबंदी बहुत ज्यादा खींची गयी ।
उपन्यास में जीता होना ही नहीं चाहिए था, उसकी जगह कोई नया अनजान किरदार होना चाहिए था ।
(पटेल जी, सारी कहानी तो जीत सिंह और सुष्मिता के ताल्लुकात पर आधारित थी जिनकी छाप आदि से अंत तक उपन्यास पर थी, फिर जीत सिंह की जगह नया किरदार क्यों चलता ?)
गुंजन शाह का सुष्मिता पर लार टपकाना भद्दा लगा । लिहाजा गुंजन शाह कि जगह कोई और - स्ट्रेट किरदार होना चाहिए था ।
आखिर में सुष्मिता गुंजन शाह से वादा करती हैं कि वो जल्दी ही उसकी फीस चुकता करने आएगी लेकिन तदोपरांत जीत सिंह से हुई मुलाकात के दौरान कहती है कि क्यों उसने दो किश्तों में गुंजन शाह की फीस अदा की ।
‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ के बारे में गोंदिया के शरद कुमार दुबे की राय उन्हीं के शब्दों में उद्धृत है:
‘इस उपन्यास से आपने फिर एक बार साबित कर दिया कि आप आप हैं, दूसरा कोई एसएमपी नहीं हो सकता । उपन्यास ने तो 100 नंबर प्राप्त किये ही; प्रकाशन, पब्लिसिटी और लांच के आयोजन ने बाजी मार ली और 101 नंबर प्राप्त किये ।
दुबे साहब ने प्रबल इच्छा प्रकट की है कि मेरे उपन्यास इंग्लिश में उपलब्ध हों । लिहाजा उनके लिए शुभ सूचना है कि 'कोलाबा कांस्पिरेसी' का इंग्लिश वर्शन तैयार हो रहा हैं जो कि अतिशीघ्र हार्पर कॉलिंस से ही प्रकाशित होगा ।
उपन्यास के जिस प्रसंग ने दुबे जी को सबसे ज्यादा द्रवित किया, वो अंत के करीब जीत सिंह की मिश्री से मुलाकात का था । निम्न लिखित डायलॉग उन्होंने अपने पत्र में विशेष रूप से कोट किया:
“ताजिंदगी किसी मर्द ने मेरी इतनी कद्र न की, न धंधे पर बैठने से पहले, न बाद में । कौन बोला तेरे को खोटा सिक्का ? तू तो खरा सोना है, रे ! ...तेरी तो चार घड़ी की सुहागन बनना भी फख्र कि बात है रे !”
उपन्यास के कोर्ट सींस दुबे जी को बहुत पसंद आये । अपनी पसंदगी उन्होंने बड़ी अनोखे तरीके से जाहिर की !
आप से उम्र में बहुत छोटा होते हुए भी अधिवक्ता गुंजन शाह जैसे जैसे अनोखे चरित्र के गठन के लिए आपकी पीठ ठोक कर आपको शाबाशी देने की गुस्ताखी कर रहा हूं ।
अकोला महाराष्ट्र के धीरज मोरारका को ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ - खास तौर से उसका अंत खूब खूब पसंद आया । उनको किताब की कीमत से शिकायत थी लेकिन जब उपन्यास पढ़ा तो शिकायत ना रही । बड़े साइज के 406 प्रकाशित पृष्ठ उन्हें 125 रूपए की कीमत के काबिल लगे । क्लाइमेक्स के लिए उन्होंने मुझे खास तौर से बधाई दी जो कि बकौल उनके, सिर्फ मैं ही लिख सकता था ।
पूना के दुष्यंत कुमार सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं जो हिंदी उपन्यासों के बारे में अच्छी राय नहीं रखते, समझते हैं सब बस ‘soft पोर्न होते हैं’, वे चेतन भगत सिडनी शैलडन, जेफ्री आर्चर और अगाथा क्रिस्टी जैसे लेखकों को ही पढ़ना पसंद करते हैं लेकिन कहते हैं कि मेरे उपन्यास जैसे तैसे फिर भी पढ़ लेते हैं क्योंकि मेरे को फिर भी किसी काबिल लेखक मानते हैं, मेरे जैसे बाकियों को नहीं । उनका इल्जाम मेरे पर ये हैं कि मैं अपने आप को दोहराता हूं ।
लेकिन ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ उन्हें इस इल्जाम से मुक्त लगा, जीत सिंह सीरीज में मर्डर मिस्ट्री का तड़का उन्हें पसंद आया । उन्हें इस बात से ऐतराज हुआ कि पूरे उपन्यास में दो समानान्तर कहानियां चलीं और दोनों में एक भी अपेक्षित ऊर्जा न पैदा कर सकी । बकौल उनके, दोनों कहानियों में जोड़-तोड़-मोड़ ज्यादा होने चाहिए थे ।
कुल जमा उन्हें मर्डर मिस्ट्री की चालू रूटीन के मुकाबले में ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ बेहतर लगा ।
दुष्यंत कुमार को ये भी ऐतराज है कि मेरी लिखी मर्डर मिस्ट्रीज़ की एक ही कहानी होती है कि एक कत्ल होता है, चार-पांच सस्पेक्ट्स होते हैं जिनमें से एक को ही आखिर में बतौर कातिल छांट लेता हूं ।
उपरोक्त के संदर्भ में मेरा निवेदन है कि जब वे सारे विश्व के मिस्ट्री राइटर के पाठक हैं तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि मिस्ट्री स्टोरी दुनिया के किसी कोने में लिखी गयी हो - भले ही उनकी पसंदीदा लेखिका अगाथा क्रिस्टी ने लिखी हो या काले चोर ने - उसकी यही एक कहानी होती हैं जिसे वे परम्यूटेशन, कॉम्बिनेशन हर मिस्ट्री स्टोरी राइटर अपने ढंग से बनाता है और अपने ढंग से इस पारम्परिक कहानी में ऐसी नवीनता पैदा करता हैं जिससे कि उसकी अलग शिनाख्त बनती हैं । जब ये बात इतने व्यापक रूप से स्थापित है, तो मेरे से ही शिकायत किसलिए, अपनी पसंदीदा लेखिका अगाथा क्रिस्टी से क्यों नहीं ? मेरे उपन्यासों में तो विमल, जीत सिंह, विवेक अगाशे वगैरह के माध्यम से फिर भी विविधता होती है, क्रिस्टी तो लिखती ही हु डन इट्स हैं । या जो इंग्लिश में लिखा जाये, जो विलायती हो वो ठीक है, जो देशी हो वो गलत है ?
नगेन्द्र मोदी पिछले तीस साल से मेरे स्थायी पाठक हैं । उनकी निगाह में मैंने 'कोलाबा कांस्पिरेसी' लिखा मानो गजब किया । जीत सिंह और सुष्मिता की मुलाकात के डायलॉग्स ने तो जैसे कहर बरपा दिया, लगा जैसे कोई रोमान्टिक नावेल पढ़ रहा हूं ।
दिल्ली के विशी सिन्हा की सुबुद्ध राय में ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ बेहतरीन, बस बेहतरीन । कातिल कौन है, इसका आखिर तक पता न लग सका और हां जब पता लगा तो लगा कि हां, कत्ल का मकसद और अवसर तो कातिल के पास बराबर मौजूद था । पुरसुमल जैसे सह्रदय इंसान की इस प्रकार मौत दिल को तकलीफ दे गयी ।
गुंजन शाह की वापसी विशी सिन्हा को बड़ा सरप्राइज लगी और कोर्ट रूम ड्रामा बेहद रोचक लगा । थ्रिलर की सभी विशेषतायें भी उन्हें इस उपन्यास में दिखाई दीं पर जो तत्व जीत सिंह सीरीज को विशिष्ट बनाता है, वो है इमोशनल एंगल और चरित्र चित्रण । इस बार भी जो इमोशनल प्रसंग आये, उन्होंने खासा द्रवित किया, चाहे वो उपन्यास के शुरू में जीत सिंह - सुष्मिता के बीच चिंचपोकली में हुआ सम्वाद रहा हो, चाहे विट्ठलवाड़ी के फ्लैट में हुआ सम्वाद रहा हो । मध्य में गुंजन शाह की कोर्ट में पहली अपीरिएन्स में धुंआधार परफॉर्मेंस के बाद शेखी बघारते वक्त जीत सिंह का खुद को उन लोगों के बीच मिसफिट,अन्वांटिड महसूस करना या कमाठीपुरे में जीत सिंह के सूटकेस के साथ पहुंचने पर जीत सिंह - मिश्री सम्वाद वास्तव में ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ को बड़े जतन से बनायीं गयी छप्पन भोग की थाली का दर्जा देते हैं जिसे बनाने में उच्च कोटि के अन्न - तेल-मसाले-सब्जियां लगाई गयी हैं, विधिवत पकाया भी गया है पर जिसके अतिरिक्त स्वाद बावर्ची के हाथों के स्पर्श और निहित प्रेम से आया है जिसका स्वाद चखने के बाद और कोई स्वाद जुबान पर चढ़ ही नहीं सकता ।
विशी सिन्हा को मेरे उपन्यासों में मिलने वाली तमाम खूबियों का संतुलित मिश्रण इस उपन्यास में मिला जिसमे कि पात्र से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण घटनाएं हैं । बकौल उनके ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ एक मर्डर मिस्ट्री तो है पर जीत सिंह खुद ही तफ्तीश कर के कातिल तक पहुंचने के चक्कर में सुनील बनता नजर नहीं आता । कोर्ट रूम ड्रामा तो है पर गुंजन शाह अपना केस काफी कुछ किस्मत के सहारे लड़ता है और जीत आकस्मिक और खुद-ब-खुद पहुंची मदद से ही पक्की हो पाती है इसलिए गुंजन शाह मुकेश माथुर बनता नजर नहीं आता । डकैती की घटना तो है पर डकैती खुद प्लान कर या मजलूम को अपने हाथों इन्साफ दिल कर जीत सिंह विमल बनता नजर नहीं आता । लिहाजा ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ वह उपन्यास है जो जीत सिंह को लेखक के किसी अन्य नामचीन किरदार के साये से बाहर निकाल कर उसके स्वतंत्र वजूद को उसकी तमाम कमियों के साथ स्थायी रूप से स्थापित करता है ।
विशी सिन्हा उपन्यास की लोकप्रियता के इस पहलू से भी बहुत प्रभावित हैं कि चंद दिनों में उपन्यास की साढ़े पच्चीस हजार प्रतियां बिक गईं और प्रकाशक को तुरंत रिप्रिंट के लिए बाध्य होना पड़ा ।
लखनऊ के अभिषेक अभिलाष मिश्रा का ‘कोलाबा कांस्पिरेसी’ पढ़ के दिल खुश हो गया, आखिर के पन्नों तक आते आते आंखों से आंसू बहने लगे । उनकी निगाह में उपन्यास ‘कोलाबा कान्स्पिरेसी’ सिर्फ एक थ्रिलर नॉवेल नहीं, उससे कहीं आगे की एक यादगार रचना है, निसंदेह एक अविस्मरणीय रचना है और मेरे अब तक के उपन्यासों में कोहिनूर हीरा है । लोग वक्त के साथ साथ लेखक को भले ही भुला दें लेकिन ‘कोलाबा कान्स्पिरेसी’ को हमेशा याद रखेंगे। उन्होने ने इसे ‘दस मिनट’ ‘तीन दिन’ और ‘मेरी जान के दुश्मन’ की श्रेणी में रखा जाने लायक बताया । कहते हैं इतनी सिम्पल स्टोरी लाइन के बावजूद उपन्यास दिल को अंत में ऐसा दहलाता है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं । जीत सिंह का बलिदान हमेशा के लिए एक कसक बन कर रह जाता है ।
मिश्रा जी मेरे बड़े सख्त क्रिटिक हैं और पहले के मेरे कई उपन्यासों को उन्होने निरंतर रिजेक्ट किया था । मुझे दिली खुशी है कि आखिर मेरे हालिया दोनों उपन्यास उन्हे खूब पसंद आए ।
हसन जहीर ने ‘कोलाबा कान्स्पिरेसी’ के बारे में ऐसा यादगार विस्तृत पत्र लिखा है कि पढ़ते जी नहीं अघाता । यहां तक कि यकीन नहीं होता कि जिस उपन्यास का प्रशस्ति गान किया गया है, वो आपके खादिम ने लिखा है । पत्र ने ऐसी हौसला अफजाई की, कि जी चाहा कि तमाम काम छोड़ कर जीतसिंह को लेकर फौरन नया कुछ लिखने बैठ जाऊं । बतौर गुण ग्राहक हसन जहीर को मेरा सादर अभिवादन ।
हसन जहीर को कहानी की बुनियाद उन जज्बाती मूल्यों पर आधारित लगी जो अब शायद निचले मध्यम वर्ग तक ही सीमित होकर रह गए हैं क्योंकि बड़ा,अभिजात्य और कथित हाई क्लास वर्ग तो जज़्बात, मैटीरियलिज्म के बदले पहले ही बेच कर खा चुका है और जहां इस प्रकार की सोच रखने वाले को ‘इमोशनल फूल’ की उपाधि से नवाजा जाता है । बकौल उनके ‘कोलाबा कान्स्पिरेसी’ में एक ऐसी कहानी वजूद में आती है जिसमे वो थ्रिल है जो जीत सिंह के कथानकों की पहचान है, वो मर्डर मिस्ट्री है जो सुनील सीरीज के उपन्यासों की जान है, वो कोर्टरूम ड्रामा है जो लेखक के दीगर उपन्यासों की शान है ।
उपन्यास के पात्रों में, अलफाज के बीच एक ऐसी कहानी तैरती मिलती है जो दिल के किन्हीं कोनों और गोशों को मुहब्बत से सराबोर करती जाती है । जहीर साहिब को उपन्यास के उस प्रसंग ने विशेष रूप से प्रभावित किया जिसमे कोर्ट में पहली बहस के बाद गुंजन शाह अपनी प्रभावशाली जिरह पर इतरा रहा होता है, नवलानी और सुष्मिता मुसाहिबों की तरह उसकी चाटुकारिता करते नहीं थकते और सब घटनाओं को घटने देने का कारक वहीं पीछे खड़ा, अहसासेकमतरी का मारा जीता, राजमहल में आए किसी फटेहाल भिखारी की सी हैसियत लिए चुपचाप किसी से बिना कुछ कहे विदा हो जाता है ।
किरदारों में जहीर साहब को सबसे ज्यादा प्रभावित लम्पट और विलासी तबीयत वाले गुंजन शाह ने किया जो एक ओर अपनी जिरह और वकालत की स्किल्स से प्रभावित करता है तो दूसरी ओर अपनी लम्पट तबीयत के चलते विलेन के खांचे में भी जा बैठने को तत्पर दीखता है । उन्हें बहुत मुमकिन लगता है कि गुंजन शाह जीतसिंह के आगामी उपन्यासों में भी नजर आएगा ।
खामियों के खाते में जहीर साहिब ने जीते का महबूब फिरंगी जैसे बिग बॉस को जमाल हैदरी के मुताल्लिक इतनी आसानी से बेवकूफ बना देने वाला प्रसंग रखा ।
दूसरे, उनकी निगाह में अगर बहरामजी कोंट्रैक्टर के कॉन्वॉय का हाईवे पर ही माल लूटने की योजना कार्यान्वित होते जताई जाती तो दूसरे, वैकल्पिक, खंडाला वाले प्रसंग से वो सिलसिला कहीं बेहतर होता ।
तीसरे जीतसिंह-गाइलो का शुरुआती डायलॉग उन्हें बहुत लंबा खींचा गया लगा ।
चौथे, क्लाईमैक्स में आत्मा की पुकार का हवाला दे कर देवकीनंदन तिवारी का आकस्मिक आगमन क्लाईमैक्स की धार को उतना तेज नहीं रहने देता जितनी कि वो तब होती जबकि कातिल भी एक नामालूम और नापैद एनफोर्सर की जगह कोई मजबूत और वजनी वजुहात लिए दीगर वारिस होता ।
Part 2 में जारी
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