Feedback on 'Bahurupiya'
बहुरुपिया
पाठकों की राय में
आपका बहुप्रतीक्षित नावल ‘बहुरुपिया’ एक ही बैठक में पढ़ा । जो थोड़ी बहुत शिकायत ‘प्यादा’ और चोरों की बारात से हुई थीं, ‘बहुरुपिया ने काफी हद तक उनको दूर कर दिया । सुधीर काफी हद तक पुरानी फ़ार्म में वापस आ गया । उपन्यास के बेहतरीन होने के बावजूद भी कुछ ऐसे बिन्दुओं की तरफ आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा जिनकी तार्किक व्याख्या उपन्यास को और कामयाबियों की तरफ पहुंचा सकती थी:
1. यादव इस बार सुधीर का साया बना रहा । दोनों के जोरदार टकराव से पाठक वंचित रहे ।
2. कुछ घटनाक्रम पर प्रथम दृष्टि में विश्वास करने को मन नहीं माना जैसे कि बेटी की मौत के बाद भी मां का मोर्ग सुबह जाने की बात करना । जैसे कि एक कामयाब व्यवसायी का इस तरह से कत्ल करते चले जाना ।
3. ऐसा भी लगा कि कथानक के 30 या 40 पन्ने कम किये जा सकते थे ।
- पराग डिमरी
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बेमन से उपन्यास खरीदा, घर आ कर उतनी ही अरूचि से पढना शुरू किया । फिर जैसे कोई जादू सा हुआ और एक ही हल्ले में 50 पेज पढ़ डाले । समयाभाव रहता है फिर भी पूरा पढ़ डाला । अब यही कहूंगा कि इस उपन्यास में आपकी लेखनी पूरे जलाल पर है और ‘चोरों की बारात’ और ‘डबल गेम’ को ढीला लिखने की शिकायत को दूर कर भरपूर मनोरंजन किया है । मुझे उपन्यास में दो खामियां नजर आयीं हालांकि उन से मनोरंजन पर कोई असर नहीं पड़ा है:
1. आपने लिखा है कि चूहे मारने की दवा में STRYCHNIN होता है जो मुझे सही नहीं लगा । चूहे मारने की दवा में मैंने संखिया या आर्सेनिक का सुना है, पर STRYCHNIN बहुर तेज जहर होता है, आसानी से नहीं मिलता ।
2. आपने लिखा है नेपाल में तोशनीवाल की वीडियो क्लिप कैमरे से बनाई गयी थी, वो भी थोड़ा विषम लगा । आज तो मोबाइल के कैमरों में भी ये सुविधा है पर 22 साल पहले यानी 1991-92 में तो मूवी कैमरे इतने आम न थे और बहुत महंगे आते थे । ऐसा कैमरा एक बच्ची के हाथ लगना और उससे मूवी बनाना थोड़ा ओड लगा । आप मूवी के बजाय सिर्फ स्टिल फोटोज लिख देते तो भी काम चल जाता । फोटोज की भी सीडी बनती है । ये बात दीगर है कि बाईस साल पहले सीडी और कम्प्यूटर भी आम नहीं हुए थे ।
- डॉक्टर राजेश पराशर
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आपकी चमत्कारिक लेखनी का एक और रत्न नया उपन्यास बहुरुपिया पढ़ा । शानदार कथानक, तेज रफ्तार और टिपीकल ‘लक्की बास्टर्ड’ फ्लेवर्ड । बहुरुपिया उस डिश की तरह है जो एक बार खा कर मन नहीं भरता, दोबारा खाने पर ही तृप्ति होती है । अंत में अंजना रांका की सुधीर के फ्लैट पर मौजूदगी वाला प्रसंग लजीज खाने का आनंद लेने के बाद खाई गयी स्वादिष्ट आइसक्रीम की तरह था ।
अंत में दरख्वास्त है कि प्रकाशक बदलिए । इंदौर जैसे महानगर में भी अगर बैस्ट सैलर ऑथर का नावल दो हफ्ते बाद उपलब्ध हो पाता है तो मुझे प्रकाशक की व्यवसायिक सोच और डिस्ट्रीब्यूशन नैटवर्क पर तरस आता है । प्रिंटिंग में बहुत सी मिस्टेक्स और जहां तहां इटैलिक फॉण्ट का यूज भी यही दर्शाता है ।
- राकेश रतनपारखी
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मैंने ‘बहुरुपिया’ पढ़ा और मुझे बेहद अच्छा लगा । सही मायनों में ये नावल सुधीर सीरीज के बेहतरीन नोवेल्स में शुमार किया जाएगा । कहानी बेहद तेजरफ्तार है और अंत तक बांधे रखती है ।
‘बहुरुपिया’ में सुधीर की पुरानी पर्सनैलिटी की बेहतरीन वापिसी हुई है जो कि ‘चोरों की बारात’ में कहीं गुम हो गयी थी । शुरू की लाइन ‘वो मुर्गाबी थी’ पढ़ते ही लगने लग गया था कि पुराने वाले सुधीर की वापिसी हो गयी थी ।
‘बहुरुपिया’ में कातिल कौन था, इस का अनुमान लगाना काफी मुश्किल था लेकिन मेरा इंट्यूशन समझिये कि तोशनीवाल पर ही शक गया जो कि नोवल के अंत में ठीक निकला लेकिन यहां मैं क्लियर कर दूं कि मेरा शक सिर्फ मेरी इंट्यूशन के आधार पर था, न कि अपनी इंटेलिजेंस के आधार पर ।
इस नावेल में दो बातें मुझे थोड़ी नागवार गुजरीं । पहले ये कि सुधीर शिल्पी के कमरे की तलाशी लेता है, सीडी, डेथ सर्टिफिकेट, स्टेटमेंट बरामद करता है, स्टेटमेंट को स्कैन करता है, प्रिंटर से कॉपी निकालता है, ब्लैंक डिस्क में कागज डुप्लीकेट करता है, सीडी से मूवी लैपटॉप में कॉपी करता है और कॉपी की गयी मूवी अपने मोबाइल में ट्रांसफर करता है । ये सारे काम टाइम लेने वाले हैं लेकिन एक बार भी चित्रिका मुखर्जी उत्सुकतावश ही, शिल्पी के कमरे में नहीं आती । क्या ये संभावित बात है ?
दूसरा मुझे ये थोड़ा अजीब लगा कि अंत में जब तोशनीवाल इन्स्पेक्टर यादव और सुधीर को कहता है कि दोनों दरवाजे के पास जा कर खड़े हो जाओ तो सुधीर थोड़ा आश्चर्य जरूर प्रकट करता है मगर दोनों दरवाजे के पास चले जाते हैं और तोशनीवाल जहरीली चोकलेट निकाल कर खा लेता है । इस प्रसंग में तत्काल मेरे दिमाग में ये ख्याल आया कि तोशनीवाल सुसाइड करेगा । तो क्या इतने काबिल इन्स्पेक्टर और काबिल पीडी को यह ख्याल नहीं आना चाहिये था ?
- तरविंदर सिंह
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‘चोरों की बारात’, विमल की तिकड़ी, सीक्रेट एजेंट पढ़ कर बड़ी निराशा होने लगी थी कि शायद अब मेरे फेवरेट लेखक का जादू कम होता जा रहा था । सीक्रेट एजेंट पढ़ कर तो ख़ास तौर से लगा कि एसएमपी अब चुक गया । लेकिन कहीं न कहीं कहीं यकीन था कि आप युवराजसिंह की तरह अपने आलोचकों को करारा जवाब देंगे और फिर मैदान में धुआंधार वापिसी करेंगे । मुझे ख़ुशी है कि ‘बहुरुपिया’ के साथ ऐसा ही हुआ । सर, लाजवाब.... अल्टीमेट... सौ में से सौ मार्क .... बेहतरीन मास्टरपीस... और क्या क्या कहूं, कहने को शब्द नहीं । ग्रेट नावल !
- पंकज
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दो अक्टूबर की छुट्टी के दिन ‘बहुरुपिया’ हासिल हुआ जिसे मैंने एक ही बैठक में पढ़ डाला । एक बार नावल शुरू करने की देर थी, पूरा ख़त्म कर के ही उठा । नावल की सब से बड़ी खूबी थी उसका तेज रफ्तार कथानक जो पाठक को थामे रहता है । आपकी लेखनी की तमाम खासियतें इस में मौजूद हैं । तेज रफ्तार कथानक, स्मार्ट टॉक, कोहली का वर्ल्ड फेमस हरामीपन और लक । इन्स्पेक्टर यादव इस बार मैंने जरा कमजोर पाया । कुल मिलाकर मेरी तरफ से एक बेहतरीन नावल था । मेरी तरफ से चार स्टार ।
- इमरान अंसारी
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‘बहुरुपिया’ के शुरुआती पन्नों से ही जो रहस्य की चादर फैलनी शुरू हुई, वो पन्ना-दर-पन्ना गहराती गयी । घटनाक्रम इतनी तेजी से घटित होता गया कि दिमाग उलझ कर रह गया । जो किरदार फिलर के रोल में नजर आ रहे थे, उन का भी रोल बाद में अहम होता गया । शुरू में एक्स्ट्रा के रोल में नजर आने वाली अंजना रांका बाद में, आखिरी सीन तक में, नजर आई । इमरान डिप्टी भी, जो शुरू में बस एक ही सीन में नजर आने वाला लग रहा था, उस की उपस्थिति बार बार महत्वपूर्ण मौकों पर साबित हुई । सुधीर भी एक के बाद एक हो रहे कत्लों में काफी उलझा नजर आया और कातिल की पहचान भी आसानी से न हो सकी । लेकिन बाद में सारे सूत्र एक एक कर के जुड़ते गये और लगा जैसे बिना किसी ख़ास मुश्किल के सुधीर असली कातिल तक पहुंच गया । कुल मिला कर एक बेहतरीन उपन्यास जिसे अभी ही दो बार पढ़ चुका हूं ।
शिकायत के तौर पर दर्ज करें कि स्ट्रिकनीन एक घातक जहर जरूर है पर सायनाइड जितना त्वरित और अतिशीघ्र असर नहीं करता, इस के असर में कुछ समय लगता है । अमूमन इसका असर दिखने में दस से साठ मिनट का समय लगता है और जहर से मृत्यु होने में एक से तीन घंटे का समय लगता है । इस वजह से तोशनीवाल के जहर खाने के एक मिनट के अन्दर, उसका डॉक्टर-नर्स पहुंचने से पहले मरा पाया जाना थोड़ा असंगत लगता है । हां, ये जरूर संभव है कि तिहरा डोज लेने की वजह से उसे मरने से न बचाया जा सका होगा ।
फिलोस्फर डिटेक्टिव सुधीर कोहली के उपन्यासों में काफी सारी फिलोसोफिकल बातें होती हैं, पर इस बार जो एक वाक्य जेहन पर छप सा गया वो है: ‘नजर और नसीब का इत्तफाक ऐसा है कि नजर को अमूमन वही चीज पसंद आती है जो नसीब में नहीं होती’ ।
- विशी सिन्हा
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‘बहुरुपिया’ उम्मीद पर खरा नहीं उतरा । बहुत सारे लूपहोल थे जो कि शुरूआती दस-पंद्रह पेज पढने के बाद ही पकड़ में आ जाते हैं । बतौर कातिल तोशनीवाल की शिनाख्त भी कोई मुश्किल नहीं थी । सबसे बड़ी खामी टाइटल में थी । जब टाइटल ही ये हिंट देता है कि कातिल कोई बहुरुपिया था तो तोशनीवाल को सिंगल आउट करना बच्चों का काम था । काफी हद तक स्क्रिप्ट ‘शक की सुई’ प्रभावित लगी मगर उसके आसपास भी न पहुंच सकी ।
बिग डिजास्टर ऑफ दी इयर ! मर्डर मिस्ट्री तो ये है ही नहीं । सुधीर को नावल में खामखाह जाया किया गया ।
- अभिषेक अभिलाष
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I received a call from a bookseller that ‘Bahurupiya’ was available at Patiala bus-stand. I took a bus immediately for Patiala and bought long awaited ‘Bahurupiya’. I started reading in bus and finished just before this mail. I can say that it is a good work but not one of the best from you. As Sudhir meets professor Majumdar at JNU, it gives clear hint of killer, that he is one of the three ie 1 Shiv Mangal, 2 Shishir, 3 Devilal. The title also suggested that the killer must be in disguise.
Further, when Sudhir captured hired goons at his flat, the case should have been solved there if Sudhir called Inspector Yadav who could make them confess for whom they were working.
Overall I give ‘Bahurupiya’ eight out of ten marks.
- M. S. Pandher
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‘बहुरुपिया’ का कवर शानदार लगा । मैं बगैर हिचक, फुल मस्ती में, प्राउड फील कर के आपका नावल चांदनी चौक मैट्रो स्टेशन से शादीपुर स्टेशन तक पढता गया । सुधीर कोहली से ये मेरी तीसरी मुलाकात थी, ‘प्यादा’ और ‘चोरों की बारात’ के बाद । मुलाकात बढ़िया रही अलबत्ता मुझे सस्पेंस में भारी कमी लगी । तोशनीवाल शुरू से ही फ्रंट में रहा और जासूसी नावल में या तो फ्रंट कैरेक्टर ही कातिल होता है या फिर कोई ऐसा कैरेक्टर जिसका जिक्र बहुत कम हुआ हो ।
जेएनयू के प्रोफेसर मजूमदार और सुधीर के बीच जो बदमिजाजी और ह्युमन बिहेवियर को लेकर बातें हुईं वो रोचक थीं ।
- राज सिंह
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महीनों बाद आज आपका नया नावल ‘बहुरुपिया’ हाथ में आया । जब से दिल्ली में इस के रिलीज होने की खबर मिली थी तब से खलबली मची थी कि कब मिले और कब पढ़ें । रात के एक बजे से ऊपर का वक्त हो रहा है और अभी अभी ‘बहुरुपिया’ पढ़ कर ख़त्म किया है । नावेल पढ़ कर बहुत आनंद आया । ऐसा लगा जैसे शाम तक सिर्फ पानी पी पी कर रहने के बाद अल्ट्रासाउंड कराया हो और रिपोर्ट में आया हो कि महीनों पुरानी किडनी की पथरी अब ख़त्म हो गयी है ।
पूरा नावल इतना तेजरफ्तार रहा कि लोग कब आये और कब कत्ल हुए, ये उन किरदारों के मरने के बाद पता चला । पहाड़ से गिरने का प्रसंग न जाने क्यों मुझे क्लिफ हैंगर मूवी की याद दिलाता रहा । सुधीर सीरीज का ये शायद पहला उपन्यास है जिस में इतने किरदारों की मौत हुई । सब से ज्यादा अफसोस शिल्पी तायल की मौत का हुआ । लगा अभी तो मिले थे, अभी ही ये कैसे हो गया ।
पूरे नावेल में सुधीर का जलाल छक्य रहा मगर फिर भी ये नोवर मुझे उस के कारनामों की वजह से पसन् आने की जगह कहानी पर आप की ग्रिप की वजह से ज्यादा पसंद आया ।
349 पेज के नावेल में मुझे शिकायत आखिरी, 349 वें पेज से है जहां आपने अपराधिनी को इतनी आसानी से फंसते दिखाया । शायद प्रकाशक ने आखिर में तीन पेज अपनी किताबों का विज्ञापन करने के लिये कहानी को काट दिया है । हर दूसरे तीसरे पेज पर इटैलिक फॉण्ट में छपा हुआ मैटर इरिटेट करता है और ये जरूर प्रकाशक का कारनामा है ।
- गौरव निगम
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‘बहुरुपिया’ में मेरी पसंद की हर चीज थोक के भाव उपलब्ध थी । लम्बा कलेवर, छरहरा कथानक, सुडौल भरपूर रहस्य, भारी रोमांच, लम्बे सुघड़ डायलॉग्स, गुलाब की पंखुड़ियों जैसी भाषा शैली, सुराही जैसी लम्बी सुधीर की दार्शनिकता, हिरनी जैसी तेज रफ्तार, हर चीज फिट, हर बात काबिलेतारीफ, कहीं कोई नुक्स था तो ये कि ख़त्म हो गयी पढ़ते पढ़ते । ऐसा जादू था कि मैं इसके आगोश में समा जाने से अपने आपको रोक न पाया ।
- शरद श्रीवास्तव
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‘बहुरुपिया’ एक शानदार कहानी और बेहतरीन किरदारों वाला तोहफा है । हमेशा की तरह सुधीर अपने पूरे जलाल में नजर आया । उपन्यास ने भरपूर मनोरंजन किया । उपन्यास पढ़ते पढ़ते यह तो समझ में आ गया था कि ‘एस’ नाम वाले किरदारों की भीड़ बढ़ रही थी, कहानी पर ‘एस’ से शुरू होने वाले नामों का इतना दबाव था कि पृष्ठ 184 पर दीक्षा भटनागर का नाम साक्षी भटनागर छप गया । बाद में एक दो स्थान पर और भी दीक्षा को साक्षी लिखा पाया गया ।
थियेटर और मेकअप से रिलेटिड बन्दों और उपन्यास के नाम ‘बहुरुपिया’ ने कातिल का कुछ कुछ हिंट देना आरम्भ कर दिया था क्योंकि बगैर मेकअप के बहुरूप संभव जो नहीं था । लेकिन कातिल कन्फर्म आप के बताये ही हुआ । बहरहाल ‘बहुरुपिया’ के रूप में आप की लेखनी ने फिर मैरिट स्थान पर अपना मुकाम बनाया ।
- शरद कुमार दुबे
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ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें ‘चोरों की बारात’ पसंद नहीं आया था क्योंकि उसमें सुधीर उन को सुधीर जैसा नहीं लगा था । मेरे ख्याल से इसी कारण आपने ‘बहुरुपिया’ के रूप में ऐसा जबरदस्त उपन्यास लिखा है कि वो सुधीर के पिछले प्रकशित किसी भी उपन्यास को टक्कर दे सकता है । कोई भी पहलू तो नहीं छोड़ा इस में सुधीर की खास शख्सियत का - उसकी रजनी के साथ स्मार्ट टॉक हो या यादव के साथ नोंक-झोंक हो या उसकी पर-स्त्री काम पिपासा हो या फिर उस की खोजबीन की काबलियत हो । मेरी नजरों में ये सुधीर का बेहतरीन उपन्यास है जिस को बार बार, कई बार और लगातार पढ़ा जा सकता है । हां, ये जरूर था कि अंत से पहले ही पता चल जाता है कि असल में कातिल कौन होगा ।
एक ही बैठक में पठनीय, गजब का रोमांच, गजब का थ्रिल, सभी कुछ गजब का । ‘बहुरुपिया’ मील का पत्थर साबित होगा ।
- कुलभूषण चौहान
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