मैं खेद के साथ लिख रहा हूं कि ‘जो लरे दीन के हेत’ के माध्यम से विमल को वो मुक्तकंठ प्रशंसा न प्राप्त हो सकी जो कि हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित मेरे पिछले उपन्यास ‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ में जीतसिंह को हुई थी । इसका ये मतलब हरगिज भी नहीं है कि पाठकों को विमल या उपन्यास नापसंद आया । उपन्यास बराबर पसंद आया लेकिन ये दो बड़ी शिकायत भी लगभग तमाम पाठकों को हुई:

1. उपन्यास में विमल मेहमान कलाकार लगा । 110 पृष्ठ तक तो उपन्यास में उसकी एंट्री तक नहीं हुई थी ।

2. उपन्यास एक ही जिल्द में सिमट गया जब कि अब पाठकों को विमल सीरीज की तिकड़ी पढने की आदत पड़ चुकी है । बकौल पाठकगण ये तो यूं हुआ कि किसी को तीन रोटी खाने की भूख हो और उसे एक ही रोटी परोसी जाए ।

उपरोक्त के सन्दर्भ में मेरा निवेदन है कि ये सच है कि उपन्यास में विमल का व्यक्तिगत पदार्पण लेट हुआ था लेकिन ये न भूलें कि उपन्यास में पृष्ठ एक से जो हुआ, उस का निमित्त विमल था, विमल की प्रत्यक्ष में नहीं तो परोक्ष में हर जगह हाजिरी थी ।

दूसरे किसी कथानक को जबरदस्ती बढ़ा कर वृहद उपन्यास बनाना गलत है । ऐसे लस्सी बनाई जाती है, उपन्यास नहीं लिखा जाता । मेरे पास जो कथानक था, वो न्यायोचित ढंग से इतनी दूर तक ही चला कि उसका एक ही खंड में समेटा जाना सम्भव हुआ । ऐसा पहले एक बार सीरीज के 29वें उपन्यास ‘हजार हाथ’ के साथ हो चुका है और पाठकों को तब भी ‘हजार हाथ’ से वही शिकायत हुई थी जो अब ‘जो लरे दीन के हेत’ से हो रही है जब कि मोटे तौर पर न ‘हजार हाथ’ में कोई खामी थी, न ‘जो लरे दीन के हेत’ में है ।

केवल एक पाठक ने एक बड़ी दिलचस्प शिकायत दर्ज कराई है । बकौल उसके उपन्यास का शीर्षक ही गलत है क्योंकि प्रस्तुत उपन्यास में विमल की दीन के हित में लड़ाई केवल एक बेवड़ी, किसी हद तक चरित्रहीन, लड़की की मदद तक ही सीमित थी ।

***

जिन पर तकिया था, वही पत्ते हवा देने लगे । ऐन ऐसा तजुर्बा मुझे उपन्यास के प्रति अपनी सुपुत्री रीमा की राय प्राप्त कर के हुआ । उपन्यास की जो धज्जियां उसने उड़ाईं, उसने मेरी रूह कंपा दी । फैसला न कर सका कि अपने बाल नोचूं या उसको कोसूं ।

मेल में उसने क्या लिखा, मुलाहजा फरमाइये:

This is the first time and first novel of yours and that too of Vimal series which I didn’t like at all here are my observations:

Starting of the novel was very well written and fast-paced till the time Garewal and Kaul came into the picture for the possession of briefcase. Though the plot was very well thought of but the entire screen play of the novel was not good, there were too many characters & too many stories running at the same time which made me lose my interest in the novel. This is the first time that I could finish your novel not in one sitting but in 4 days. Such a powerful title “JO LARE DIN KE HET” doesn’t go with the story at all, and there was nothing in the novel which makes you feel that Vimal fought for downtrodden. In my opinion, you should have named this novel “DHODA”, a mithai which halwai makes from the leftovers of all the mithais in his shop.

Michael Huaan seemed to be forcibly added to the novel. I understand the reason why Garewal & Kaul wanted to kill Vimal, but I fail to understand why Anup Jhende tagged along. He had been just been maamuli pyada of ‘company’ who was very well aware of the consequences and fall of ‘Company’ and its top guns namely Bakhiya, Iqbal Singh, Gajre etc. He must be aware that all was done by Vimal alone, still he thought that he could kill Vimal.

Secondly, when Garewal & Kaul had an opportunity to shoot Vimal, why didn’t they take that.

Vimal, is a ‘Ishtihari Mujrim’. If police has to help him the way it has been depicted in the novel, then what is the point of enlisting him ‘Istihari Mujrim and announcing a reward on his arrest. I fail to understand that if such a huge mob was there outside any police post, then how come senior police officers didn’t come to know anything about that.

Hundreds of taxis were going in one direction and nobody took note of this unusual happening. As a matter of fact that entire scene was too superficial and Ekta Kapoorish.

Neelam comes alone to save Vimal hiding herself in a coffin about which she doesn’t know when it will be opened, where it will reach, and how many people will be there when it reaches its destination. She sure is a SUPER WOMAN !

To sum up, I would like to say that Vimal is too big a personality now to handle petty things, like going to collect money, rescuing a girl from her ex-boyfriend, etc. You really need to think something big for Vimal next time.

उपरोक्त के विपरीत कॉलेज प्रिंसिपल डॉक्टर कंवल शर्मा का पत्र मुलाहजा फरमाइये जिन्हें विमल का 42वां कारनामा बेहद रोमांचक लगा, शाहकार लगा:

जिस तरह विमल की हर कहानी तिकड़ी में आती रही है, मुझे डर था कि शायद ये कारनामा अपने सीमित पृष्ठों की वजह से वो मजा नहीं दे पायेगा जिस के कि हम आदी हो चुके हैं लेकिन वो डर झूठा निकला । कहानी जिस तेज रफ्तार से आगे बढती चली गयी, उसने मुझे सांस भी न लेने दी, रात के दो बजे उपन्यास खत्म हुआ, तभी मैंने उसे छोड़ा । तब अचानक ही मुझे महसूस हुआ कि विमल का यूं एक जिल्द में पूरी कहानी के साथ आना कहीं बेहतर है वर्ना तिकड़ी में तो एक के बाद दूसरे और फिर तीसरे हिस्से का इन्तजार करते-करते कई बार मन खीज उठता था । लिहाजा वर्तमान अनुभव के बाद मेरी राय है आप आइन्दा भी विमल की कहानी को बजाये तिकड़ी में पेश करने के यूं एक ही बार में, एक ही जिल्द में दिया करें ।

कहानी जिस तरह दिल्ली में शुरू हुई, उसने वहीं से जो गजब रफ्तार पकड़ी, वह मुंबई में उसके अंत तक बनी रही । खास तौर से कहना चाहूंगा कि दिल्ली वाले हिस्से में - जिस में विमल मौजूद ही नहीं था - मुझे विशेष आनंद आया । वहां का एक एक प्रसंग बेहद जानदार लगा, खास तौर से गरेवाल और कौल का जेल वैन से भागने का पूरा प्रसंग ! हैरान हूं कि बिना विमल की मौजूदगी के आप दिल्ली वाले हिस्से को इतना रोचक, इतना रोबदार बना पाये । सच में ये काम बस आपके ही बस का था ।

मुंबई में विमल की शिरकत के बाद भी कहानी की धुआंधार रफ्तार में कोई कमी नहीं आती, अलबत्ता विमल का कई बार अपने आप को लाचार हालत में महसूस करना दरअसल उन पाठकों को नागवार गुजरेगा जो उसे सुपर ह्यूमन की तरह खुद हर परेशानी से निकलता देखने के आदी हैं । बहरहाल मेरा इस तथ्य पर जोर है कि विमल को जैसा आम इंसान, बल्कि वास्तविकता के बेहद नजदीक वाला इंसान पेश किया गया है, वह वाकई काबिले तारीफ है ।

पढ़ कर अच्छा लगा कि एक आम आदमी की तरह विमल भी पुलिस के आने पर उनसे आमना सामना होने से बचने की कोशिश ही करता है किसी सुपर हीरो की तरह गोलियां दागता उन्हें खत्म नहीं कर देता ।

आखिर में टैक्सी वालों का विमल के पक्ष में आ कर खड़ा होना और उसे निश्चित मौत से बचा लेना फिर मेरी उपरोक्त बात का ही सबूत है कि विमल अभी भी आम आदमी ही है, कोई कृष, कोई सुपरमैन, कोई स्पाइडरमैन नहीं ।

आखिर में कमियों के खाते में मुझे सिर्फ एक बात ही अखरी कि विमल की मौजूदगी कुछ कम रही - इतनी कम कि दिल्ली वाले प्रसंगों को पढ़ते हुए लगा कि कोई थ्रिलर पढ़ रहा हूं - विमल सीरीज नहीं ।

सांगरिया, राजस्थान के ओ.पी. चौहान को उपन्यास अत्यंत रोचक लगा और उन्होंने इसे एक ही बैठक में पढ़कर मुकम्मल किया । गरेवाल की टिपिकल पंजाबी ने उनका भरपूर मनोरंजन किया ।

हैरानी है कि चौहान साहब को पुस्तक ‘हजार हाथ’ का पार्ट लगी, ‘पैंसठ लाख की डकैती’ का नहीं ।

उपन्यास में प्रूफ की गलतियों से चौहान साहब को गंभीर शिकायत हुई और उन्होंने पुरजोर इसरार किया कि वे विमल का हर कारनामा तीन पार्ट में ही पढ़ना चाहते हैं क्यूंकि एक पार्ट से उनकी भूख शांत नहीं होती ।

दिल्ली के महेंद्र शर्मा ने उपन्यास के प्रति अपनी राय बहुत ही शायराना अंदाज में पेश की । राय की खूबी ये थी कि उसमें उपन्यास के किसी प्रसंग का, किसी खूबी-खामी का कोई जिक्र नहीं, फिर भी राय उपन्यास - जो लरे दीन के हेत - की बाबत ही है । लिखते हैं:

ये लियाकत, तजुर्बेकारी, मोहब्बत और ख़ुलूस की इंतहा है कि आज इस खास नावेल के कमेंट्स पर भी कमेंट्स किये जा रहे हैं । अल्लाहताला का शुक्र है कि जिसके दम से हम लोग उस दौर में जिन्दा हैं जिसमें सुरेन्द्र मोहन पाठक की कलम इंसानियत के उन सब यादगार लम्हों को खूबसूरती से पेश किये जा रही है जो जिंदगी के जरूरी पायदान हैं ।

आने वाला वक्त पाठक साहब और उनके इल्म को जहां जज्बात से लबरेज खुशी से याद करेगा वहां हम पर भी रश्क करेगा कि हम इन हसीन लम्हों के चश्मदीद गवाह रहे हैं ।

कोरबा छत्तीसगढ़ के विवेक शर्मा को, जो कि पुलिस अफसर हैं, उपन्यास से शिकायतें ही शिकायतें हैं । वो मेरे से सवाल करते हैं कि क्या मैं खुद आज के विमल से संतुष्ट हूं ? वो समझते हैं कि मैं इसलिए लिखता हूं क्योंकि सिर्फ लिखना है और बेचना है (मैं बेचता हूं ?) । उनका अहसान है कि उन्होंने मेरे सारे, हर सीरीज के उपन्यास चाव से पढ़े हैं और उनके अलावा केवल एक और उपन्यास पढ़ा है जिसकी अब तक - बतौर लेखक बड़ा बोल - 20 लाख (!) प्रतियां बिक चुकी हैं । कहते हैं कि अब मेरे पास विमल के लिए कोई स्क्रिप्ट नहीं बची है । कुछ बचा है तो सिर्फ लिखने के लिए लिखी कहानी, घिसे-पिटे विलेन, इनके बीच असहाय सा विमल, शोहेब, इरफान, विक्टर वगैरह के रहमोकरम पर जिन्दा रहता विमल, यानी मैंने विमल की जिंदगी को ‘लार्जर दैन लाइफ’ से ‘दुर दुर करती’ बना दिया है । जमा कहां वो मास्टरमाइंड विमल, कमांडिंग विमल, कहां बखिया, गुरबख्श लाल, इकबाल सिंह, गजरे वगैरह से भिड़ने वाला विमल और कहां दो-दो कौड़ी के अपराधियों से बचने के लिए अपने मुहाफिजों के पांव पड़ा विमल ।

आखिर में उनकी मुबारक राय है कि मैं विमल सीरीज लिखना बंद कर दूं, (गनीमत है कि राय ये नहीं है कि मैं लिखना ही बंद कर दूं) क्योंकि मेरे पास विमल के लिए अल्फाज बचे हैं, कहानी नहीं कोई आईडिया नहीं ।

उन्होंने फौरन लिखना बंद कर देने की भी राय दी है और ये राय भी दी है कि मैं विमल को आर्थर कानन डायल के किरदार शरलॉक होम्ज जैसी मौत मरता दिखाऊं (कैसे होगा, विवेक शर्मा साहब ? लिखना बंद कर दूंगा तो कैसे होगा ?) । यहां काबिले गौर बात ये है कि अगर विमल को लेकर लिखने के लिए कुछ नहीं था तो कैसे मैं 300 पृष्ठ लम्बा घटनाक्रम खड़ा कर सका ।

बहरहाल मुंडे मुंडे मति भिन्न:

अरविन्द मीणा ने गंभीर शिकायत की है कि जिस उम्मीद के साथ उन्होंने ‘जो लरे दीन के हेत’ खरीदी थी, वो पूरी न हुई । एक तो 110 पेज तक विमल की एंट्री न हुई - उसी से आधा मजा किरकिरा हो गया -दूसरे उपन्यास में विमल ने एक भी एक्शन न किया । जो भी किया वो दूसरों ने किया । यहां तक कि नीलम को भी एक्शन में भरपूर हिस्सा मिला ।

मीणा जी को ऐसा लगा जैसे मैंने ये किताब लिखनी थी इसलिए लिख दी । इसमें विमल की छाप कहीं नहीं थी । उन्हें ऐसा लगा जैसे ये ही विमल सीरीज का अंत था, उसके सारे मिशन पूरे हो चुके, सारे प्रमोशन हो चुके, अब तो सारे काम उसके अंडर में चलने वाले चमचे ही कर देतें हैं ।

गुरप्रीत सिंह को ‘जो लरे दिन के हेत’ उम्दा, तेज रफ्तार और बधाई का पात्र लगा लेकिन उन्हें अनुज पवार वाला प्रसंग प्रमुख कथा सूत्र के साथ सम्बन्धित न लगा । अलबत्ता उपन्यास का एक पार्ट में होना उन्हें पसंद आया ।

अलोक वर्मा को उपन्यास तब तक ही बढ़िया लगा जब तक कि विमल कि एंट्री नहीं होती । बाकी उन्हें पुराना बासी कहानी लगा ।

गाजियाबाद, यू.पी. के मुबारक अली की राय उन्ही के शब्दों में:

जब मैंने ‘जो लरे दिन के हेत’ पढ़ कर खत्म किया तो मेरे होठों पर मुखर मुस्कान थी और मुंह से एक ही फिकरा बार-बार निकल रहा था : “व्हाट अ मैन ! व्हाट अ मैन !”

वो फिकरा विमल के लिए नहीं आपके लिए था । इतना अद्भुत, अद्वितीय, अकल्पनीय, तेज रफ्तार महासंतुष्टि देने वाले उपन्यास के लिए आपको दिलो जान से धन्यवाद । कई मायनों में ये उपन्यास एक शानदार रीडिंग एक्सपीरियंस रहा । पहले पृष्ठ से ही कहानी ने सुपर सोनिक प्लेन जैसी रफ्तार पकड़ ली । असाधारण तेज घटनाक्रम का ही जहूरा था कि ये महसूस ही न हुआ कि पहले 110 पृष्ठ में विमल है ही नहीं । दिल्ली में घटित रोचक घटनाओं के सम्मोहन से अभी ढंग से उबरा भी नहीं था कि मुंबई में जारी घात प्रतिघात की बाजी से रूबरू होना पड़ा । कितना बेहतरीन अनुभव था क्या बताऊं ! पहली बार मैंने आप का कोई उपन्यास पढ़ने के बाद उसके कुछ अंश उसी रात फिर से पढ़े ।

विमल का नया कारनामा तिकड़ी में पढ़ने का अभ्यस्त होने के बावजूद मुझे इस उपन्यास से कोई शिकायत नहीं हुई ।

उपन्यास में ह्यूमर की भी भरपूर भाग था जिसने मेरा भरपूर मनोरंजन किया । गरेवाल का झेण्डे को झण्डे भाई बोलना झेण्डे को गरेवाल कि पंजाबी समझ में न आने पर कौल द्वारा उसका अनुवाद करना आदि चीजों ने खूब दिलजोई की । कोमल के एक चुटकी सिन्दूर वाले संवाद ने तो जी भर के हंसाया । आखिरी पृष्ठों में सब इंस्पेक्टर यशवन्त राव सावन्त का विमल से सम्वाद दिल पर छाप छोड़ गया ।

मुसीबत में घिरे विमल की मदद को पहुंचे टैक्सी ड्राइवरों के हुजूम वाला सीन रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर गया ।

एकाध बात खटकी भी । जब विमल काल पर फतह पाया शख्स स्थापित है तो गरेवाल एंड कंपनी ने उसे ठौर क्यों ना मार गिराया ? उसे कत्ल और रेप के इल्जाम में फंसाकर ‘लखनऊ वाया सहारनपुर’ वाला रूट क्यों अख्तियार किया ? बहरहाल ऐसा न हुआ होता तो आगे घटित हुए रोचक घटना क्रम की बुनियाद ना बन पाती । दिलो दिमाग को सुकून पहुंचाने वाले एक बेहद शानदार उपन्यास के लिए आप को लाखों सलाम । अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा

कपूरथला पंजाब के गुरुप्रीत सिंह को ‘जो लरे दीन के हेत’ इतना अच्छा लगा कि बकौल उनके वो अपने जज्बात को अल्फाज में बयान नहीं कर सकते । उन्हें एक कमी बराबर खटकी कि उपन्यास के पहले 110 पृष्ठों में विमल नहीं था । दूसरे, वो विमल के नए कारनामे के तीन खंड में होने की उम्मीद कर रहे थे, उसे एक ही खंड में सम्पूर्ण पाकर उन्हें घोर निराशा हुई ।

कानपुर के पुनीत दुबे को उपन्यास अच्छा लगा पर उतना रोचक और धुआंधार न लगा जैसे कि सीरीज के पूर्व प्रकाशित उपन्यास थे । उन्होंने ये कह कर बाकायदा मेरी हिमायत की कि वो उन तमाम लोगों के खिलाफ थे जिन्होंने ‘जो लरे दीन के हेत’ को अपने नाजायज नुक्ताचीनी का मरकज बनाया था । उनकी राय में विमल लिखना बंद कर दिया जाये सर्वदा गलत थी क्योंकि विमल फीनिक्स की तरह था जो कि अपनी ही राख से उठकर खड़ा हो गया था ।

लखीमपुर खीरी के हरेन्द्र मलिक को भी उपन्यास पढ़ कर वो मजा न आया जिसके वो आदी हैं और जिसके कारण पिछले 20 वर्षों से उन्होंने मेरे अलावा किसी लेखक को नहीं पढ़ा ।

मलिक साहब को ‘जो लरे दीन के हेत’ पढ़ कर मनोज कुमार की याद आ गयी जिन्होंने शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम, शोर, क्रांति, रोटी कपड़ा और मकान जैसी फिल्में बनाईं और फिर क्लर्क और कलजुग की रामायण भी बनाई ।

बकौल मलिक साहब विमल जो कुछ कर सकता था वो कर चुका है, अब कहानी को बीस-बाइस साल आगे ले जाया जाना चाहिए था और सूरज को बड़ा कर के यूं पेश किया जाना चाहिए था जैसे विमल गॉड फादर का डॉन वीटो कारलियोन हो और सूरज माइकल कारलियोन (वाह !)

साकेत अवस्थी ने उपन्यास को शानदार, अद्भुत, रोचक, तेज, रोमांचक जैसे विशेषणों से नवाजा लेकिन उपन्यास के टाइम फैक्टर ने उन्हें कनफ्यूज किया । बकौल उनके, कहां स्वैन नैक आइलैंड का घटनाक्रम और कहां पैंसठ लाख की डकैती ! हजम करने में समय लगा कि जिस घटनाक्रम को हमने 20 साल पहले पढ़ा वो वास्तव में दो साल का ही वाकया था । उनके शब्दों में : स्टाक कैरेक्टर्स का इतना उचित प्रयोग आप ही कर सकते हैं । गरेवाल और कौल को जिन्दा कर सामने कर दिया, जिस तरह मायाराम बावा को किया था । आप सच ही कहते हैं कि कोई अदृश्य शक्ति ही आपसे विमल का लेखन करवाती है ।

हनुमान प्रसाद को उपन्यास ठीक ठाक लगा । उनकी निगाह में विमल का ये पहला उपन्यास है जिसमें वो मेहमान कलाकार के रूप में मौजूद है - जैसे किसी थ्रिलर उपन्यास में विमल को फिट कर दिया गया हो ।

गुंजन मदान कहते हैं कि वो 27 साल से मेरे पाठक और प्रशंसक हैं और विमल के लार्जर दैन लाइफ किरदार के खास तौर से शैदाई हैं जो कि उन्हें अजर अमर जान पड़ता है । वे विमल की लम्बी उम्र की दुआ करते हैं ताकि मैं इसके ज्यादा से ज्यादा नावेल लिख सकूं । विमल के सारे नावल उन्हें मील का पत्थर जान पड़ते हैं । फिर भी उन्हें ‘जो लरे दीन के हेत’ से निराशा हुई, उपन्यास उन्हें विमल की या मेरी ख्याति के अनुरूप न लगा ।

लखनऊ के अभिषेक अभिलाष को उपन्यास की कहानी जबरदस्त, सुपरफास्ट ट्रैन जैसी लगी जिसे उन्होंने पढ़ना शुरू किया तो खत्म करके ही उठे । बकौल उनके कब्र से उठ कर खड़े हुए मुर्दों ने तो सोहल को हिला कर रख दिया । यानी कौल और गरेवाल की वापसी उन्हें रोचक लगी, साथ ही इस सवाल का जवाब भी मिल गया कि आखिर पैंसठ लाख की डकैती का माल गया तो कहां गया । उनकी निगाह में क्लाइमेक्स में मैंने हुआन, गरेवाल और कौल को जिन्दा छोड़ कर अपने एक आइन्दा बड़े कथानक की नींव रख दी है जबकि हकीकत ये है कि मैं उनका खात्मा दर्शाने के ही हक में था जिसके कि वो काबिल थे लेकिन मेरे को नीलम के मिजाज की लाज रखनी पड़ी । मेरे को बाद में सूझा कि विमल को बोलना चाहिए था कि उसने नीलम के कहने पर मायाराम बावा को जिन्दा छोड़ा था तो बाद में उसने वहां क्या कहर ढाया था ! खेद है कि वक्त रहते ये दलील मेरे को ना सूझी ।

विमल की प्रस्तुति अभिलाष जी को त्रुटिहीन लगी जबकि उसका रोल गेस्ट स्टार जैसा था मगर उसकी हाजिरी जितनी भी थी, दमदार थी । क्लाइमेक्स में नीलम की एन्ट्री ने उनके जेहन में छः सिर वाला रावण की याद ताजा कर दी ।

गुडगांव के हसन अलमास महबूब की मेल की शुरुआत हिंदी में यूं थी (चिट्ठी अंग्रेजी में थी )

‘क्या फायदा ऐसी जिंदगी का जो खुदगर्जी में डूबते उतराते गुजरे, जो मैं मैं मेरा मेरा करते गुजरे । आदमी का बच्चा किसी के काम का नहीं तो किस काम का !’

आगे लिखते हैं:

Awsome lines ! Hats off to you. I am very much satisfied by this masterpiece. Speedy novel ! One sitting reading material ! Fabulous entry of Vimal and what a lovely portrayal of Neelam ! First conversation between Neelam and Vimal was just marvelous.

गरेवाल, कौल जैसे पुराने किरदारों की वापिसी महबूब साहब को बहुत संतोष जनक लगी, गरेवाल का झेण्डे को झण्डे कहना मनोरंजक लगा, माइकल हुआन एवरेज लगा लेकिन इरफान फुल फॉर्म में लगा । क्लाइमेक्स में नीलम गजब की लगी, कोमल और उसका डायलाग ‘एक चुटकी सिन्दूर की कीमत तुम क्या जानो परमेश बाबू’ माइंड ब्लोइंग लगा । उपन्यास एक ही जिल्द में समाप्त था, इस बात की उन्हें भी शिकायत हुई क्योंकि विमल की नई कहानी को हजार पृष्ठों में ही पढ़ना चाहते हैं ।

मुजफ्फर नगर के जयराम दिवाकर मेरे पुराने पाठक हैं जिन्होंने बीस साल के अंतराल के बाद बाजरिया मेल मेरे से सम्पर्क साधा है, जो कि बड़ी सुखद और वैलकम घटना है । उन्हें ‘जो लरे दीन के हेत’ विमल सीरीज का लाजवाब उपन्यास लगा जिसमें बकौल उनके मिस्ट्री, सस्पेंस, थ्रिल, क्राइम, फिक्शन, वॉयलेंस सब कुछ था । प्लाट उन्हें सुरक्षित लगा और अंदाजे बयां चुस्त दुरुस्त लगा । उन्होंने उपन्यास से सम्पूर्ण संतुष्टि जाहिर की और उसे 100 में से 100 मार्क्स दिए ।

विकास अग्रवाल को ‘जो लरे दीन के हेत’ बढ़िया लगा लेकिन ‘कोलाबा कांस्पीरेसी’ से कमजोर लगा उपन्यास के टाइम फैक्टर से उन्हें भी शिकायत हुई । सवा साल के वक्फे में विमल-नीलम की मुलाकात भी हुई, शादी भी हुई, बच्चा भी हुआ, सीरीज के कई खण्डों का घटना क्रम भी हुआ, कैसे मुमकिन हुआ महज सवा साल के वक्फे में ? लेखक को लेखन में बहुत तरह की छूट होती हैं लेकिन कालखण्ड का थोड़ा तो ख्याल रखा जाना चाहिए था ! फिर भी कहानी उन्हें उम्दा लगी जो कि उन्होंने एक ही बैठक में पढ़कर समाप्त की ।

उपन्यास के डायलॉग्स की उन्होंने अलग से भूरि भूरि प्रशंसा की ।

बिलासपुर के निशांत शर्मा ये तो नहीं कह सकते कि विमल का नया उपन्यास पढ़ कर उन्हें मजा नहीं आया लेकिन वैसा मजा न आया जैसा विमल के पहले उपन्यासों में आता था । उनके ख्याल से मेरी कोई मजबूरी थी जो मैंने कहानी को एक ही जिल्द में मुकम्मल किया । उन्हें उपन्यास में विमल का वो जलाल देखने को न मिला जिसके लिए विमल मशहूर है । फिर भी ये बात उन्हें काबिले तारीफ लगी कि सालों पहले लिखे उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ का मैंने फिर से सूत्र पकड़ा और उसे और आगे बढाया, न सिर्फ आगे बढाया बल्कि और आगे बढाने की गुंजायश बना कर रखी ।

कुल मिलाकर उपन्यास उन्हें पैसा वसूललगा ।

बांदा के अश्वनी पाण्डेय को उपन्यास शानदार, जबरदस्त, ‘छोटे पैकेट में बड़ा धमाकालगा जिसे उन्होंने शुरू किया तो खत्म करके ही छोड़ा । विस्तृत मेल भेजने का उनका वादा था लेकिन लगता है कि किसी कारणवश न भेज पाए ।

चंपारण बिहार के मनोज कुमार ने ‘जो लरे दीन के हेतके लिए मुझे ढेर सारी बधाई से नवाजा है । एक पार्ट में समाप्त उपन्यास भी उन्हें पूर्णतया संतोषजनक, उम्मीद से कहीं अधिक खरा और शत प्रतिशत संतुष्टिदायक लगा । मेरी मेहनत इन्हें हर पृष्ठ पर देखने को मिली, एक एक शब्द व संवाद कसा हुआ, रोचक, तेज रफ्तार, पठनीय लगा । उपन्यास ने ऐसा समा बांधा जैसे दशहरे-दीवाली का एडवांस बोनस मिल गया । पैंसठ लाख की डकैतीउन्होंने कोई दो दशक पूर्व पढ़ी थी लेकिन मायाराम बावा के दो सूटकेसों का सवाल हमेशा उनके जहन में खटकता था । अच्छा हुआ कि जो लरे दीन के हेतमें इस बड़े रहस्य से पर्दा उठ गया जो बड़ी खूबसूरती से विमल के पिछले कारनामे के बाद नयी कड़ी के तौर पर जुड़ गया । प्रस्तुत उपन्यास को पैंसठ लाख की डकैती - पार्ट 2’ की निगाह से देखा जा सकता है ।

जगदीप सिंह रावत की राय उन्हीं के शब्दों में:

मैं विमल का पुराना और नियमित पाठक हूं । विमल के कारनामे पढ़कर रोमांच का जो एहसास होता है, उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है । मैंने विमल के सारे नावेल पढ़े हैं, शायद यही वजह है कि ‘जो लरे दीन के हेत’ में मुझे कुछ भी नया न लगा । इतने बड़े भारत में विमल के बस दो ही ठिकाने ! मुंबई और दिल्ली ! जहां से उसे ढूंढना बच्चों का काम ! अंडरवर्ल्ड में खूब मशहूर हो चुके इन दोनों ठिकानों पर विमल का बने रहना मेरी समझ से तो परे ही है । क्या पूरे भारत में दिल्ली स्थित एक गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन ही बचा है जहां विमल को नौकरी मिलेगी ।

नीलम ने जिस तरह मायाराम बावा की जानबख्शी कराई उसका खामियाजा विमल को पूरी शिद्दत से भुगतना पड़ा, वैसे ही अब गरेवाल सरीखे राक्षस से बाकी बचे लोगों की जान खतरे में डालते विमल को संकोच न हुआ । आपके पास एक मौका था विमल को नए पाठकों के बीच स्थापित करने का जिसे आप विमल के अतीत से गरेवाल, कौल, माइकल हुआन की खिचड़ी परोस कर चूक गए ।

 मैं इस नावल को सौ में से सैंतालीस नंबर दूंगा ।

अभिषेक ओझा फरमाते हैं कि उन्हें जो लरे दीन के हेतपढ़ कर लगा जैसे किसी ने मेरे से गन प्वायंट पर एक ही पार्ट में नावल खत्म करवा लिया । उन्हें सब कुछ अधूरा सा लगा । 113 पृष्ठ पर जाकर विमल की हाजिरी का क्या मतलब ? इसको विमल की गेस्ट अपीयरेंस कहना ही ठीक होगा ।

दिल्ली के सिद्धार्थ अरोड़ा को पैंसठ लाखका क्या हुआ, जानकार खुशी हुई, कहानी तेज रफ्तार से भागती लगी, अंत करीब आता गया .... पर ये क्या ! क्लाइमेक्स में फिर टैक्सी ड्राइवरों द्वारा विमल को बचा लिया गया । फिर वही अंत । फिर नीलम ने खुफिया स्टाइल से विमल की जान बचा ली । सवाल ये हुआ कि सरदार साहब की खुद की शख्सियत कहां खो गयी ? वो तो अकेले ही सवा लाख के बराबर हैं ।

कहने का मतलब उनका ये है कि मन नहीं भरा । उन्हें ऐसा लगा जैसे ट्रेलर देखा, लगा जैसे फिल्म अभी बाकी है । उनकी निगाह में ये बात भी अजीब है कि कोई एक भी किरदार मरा या मारा न गया ।

जसवंत सेवाग को उपन्यास बहुत ही बोर लगा । बोरसे ज्यादा बहुत हीपर जोर था । उन्हें लगा कि उपन्यास मैंने जबरदस्ती लिखा, नतीजतन नीरसता ही हाथ लगी ।

रिशी ग्रोवर को सख्त नाउम्मीदी हुई जब उन्हें पता चला कि उपन्यास एक ही पार्ट में था । उनकी निगाह में ये अनहोनी थी कि विमल सीरिज का नावल और सिर्फ 300 पृष्ठ में सिमट कर रह गया । इतना बड़ा, लार्जर देन लाइफ किरदार शोर्ट स्टोरी (!) में। .... मानो किसी फेवरेट स्टार की फिल्म देखने जाएं और वो सिर्फ एडवरटाइजमेंट में दिखे । (ज्यादा हो रहा है !)

ग्रोवर साहब की निगाह में मैंने अपने पाठकों के साथ ही नहीं, सरदार जी के साथ भी नाइंसाफी की है । ऊपर से एक तिहाई नावल में तो विमल था ही नहीं । उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई शानदार डिनर की, काक्टेल्स की उम्मीद कर रहा हो और उसे उबला हुआ खाना परोसा जाए ।

फिर भी ग्रोवर साहब कहते हैं कि कहानी उन्हें कमाल की लगी जबकि उसमें विमल के करने के लिए कुछ भी नहीं था । उनका सवाल है कि क्यों मेरे को कहानी खत्म करने की जल्दी थी जिसकी वजह से हर कैरेक्टर अंडरडेवेल्पड रह गया ।

आखिर में उन्होंने कहा कि जो लरे दीन के हेतपर विमल सीरीज का ठप्पा न होता तो कमाल का उपन्यास होता ।

मन्नू पंधेर ने उपन्यास को नगीना बताया और 7 स्टार के काबिल बताया । उन्होंने इस बात से भी संतोष प्रकट किया कि उन्होंने मुकम्मल कहानी के लिए बस वो एक ही पार्ट पढ़ना था। (शुकर !)

पंधेर साहब को कहानी करामाती लगी जिसको मैं चाहता तो तीन या चार पार्ट में भी खींच सकता था । गरेवाल के पंजाबी लहजे ने उनका खूब मनोरंजन किया ।

जो शिकायत उन्हें हुई वो ये है कि विमल अब इतना शक्तिशाली हो गया है कि उसके लेवल का विलेन खड़ा करना मेरे लिए समस्या बन गया है । हुआन, गरेवाल, कौल वगैरह बखिया, इकबाल सिंह, गजरे, गुरबख्श लाल वगैरह के मुकाबले में कहीं भी नहीं ठहरते ।

उनकी निगाह में अंत में विमल का सब को जिन्दा छोड़ देना गलत था ।

अशोक गिडवानी ये जानकर बहुत मायूस हुए कि ‘जो लरे दीन के हेत’ एक ही भाग में था । इसकी उन्होंने मेरे लिए ये सजा तजवीज की है कि मैं फौरन - तीन महीने में - विमल की अगली कड़ी प्रस्तुत करूं ।

मोहाली के टी डी मल्होत्रा कहते हैं कि वो मेरे पुराने पाठक हैं जिनके पास मेरे सवा दो सौ से ज्यादा उपन्यास संकलित हैं । उनको ये बात बहुत भाई कि ‘जो लरे दीन के हेतमें उनके शहर मोहाली का जिक्र था - थोड़ा था लेकिन था ।

विमल की लेट एंट्री की उन्हें शिकायत हुई जिसने कि उपन्यास में उसका रोल छोटा कर दिया । उनकी भी यही राय है की विमल सीरीज पढने वालों को एक लम्बे कलेवर का स्वाद लग चुका है इसलिए उनकी संतुष्टि एक ही जिल्द में सम्पूर्ण उपन्यास से नहीं हो सकती ।

नागौर राजस्थान के डाक्टर राजेश पराशर ने तो ‘जो लरे दीन के हेत’ के कवर, प्रिंटिंग, बाइंडिंग, वाजिब दाम तथा कागज की क्वालिटी तक की तारीफ कर डाली । उन्हें उपन्यास तेज रफ्तार लगा, कहानी नई लगी, कथानक में कोई ढिलाई दिखाई न दी । उपन्यास का हर प्रसंग डाक्टर साहब को सामान रूप से रोचक लगा और घटनाक्रम अत्यंत स्वाभाविक लगा ।

खामियों के खाते में उन्हें विमल सीरिज के प्रकाशन की सालाना रफ्तार - 43 साल में 42 उपन्यास यानी एक साल में एक उपन्यास - नागवार गुजरी । कहते हैं कि मैं विमल की एक तिकड़ी लिख कर तीन चार साल का कोटा पूरा कर डालता हूं जबकि इस बार वो भी न हुआ । लिहाजा धोखा हुआ । पहले तो तिकड़ी की आदत दाल दी, फिर सिंगलउपन्यास परोस दिया । ऊपर से ऐसा इस बार क्यूं किया इस बाबत कोई सफाई भी नहीं, कोई खेदप्रकाश भी नहीं, आइन्दा के लिए कोई तसल्ली भी नहीं कि विमल का अगला कारनामा कदरन जल्द मिलेगा । उनके ख्याल से मैं चाहता तो मौजूदा उपन्यास को ही तीन पार्ट में बहुत आसानी से तब्दील कर सकता था । (टैक्स्ट में किसी इजाफे की कहां गुंजायश थी, डाक्टर साहब ? होती तो क्या मुझे एक कथानक से तीन बार कमाई काटती थी !)

गरेवाल को जिन्दा दिखाना पराशर साहब को उम्दा लगा पर हुआन का बच निकलना कतई हज्म न हुआ । उसे बहुत लचर तरीके से बचाया गया । उन्हें ये भी शिकायत है कि स्वैन नैक आइलैंड पर हुए भीषण विस्फोटों के बाद क्यों किसी ने तस्दीक न की कि सब मर चुके थे । क्यों हुआन आइलैंड से यूं हाथ हिलाता निकल आया जैसे चौपाटी पर टहल रहा हो ? आजाद होकर भी उसने पल्ले क्या डाला ? चमत्कारी कुछ भी नहीं । उससे तो दफेदार, विराट जी अच्छे थे ।

गरेवाल का वैन ब्रेक का तरीका उन्हें बेकार लगा (पराशर जी ये दिल्ली की सच्ची घटना है), उनके गले से न उतरा कि कोई बस के तले को उखाड़ कर चम्पत हो जाए । उनकी निगाह में गरेवाल वगैरह को तिहाड़ से बाहर तक कोई सुरंग (दाता !) खोदनी थी या चार्ल्स शोभराज की तरह कोई पार्टी देकर फरार होना था ।

विमल के एक तिहाई उपन्यास से गायब होने की शिकायत पराशर साहब को भी हुई । बकौल उनके विमल से ज्यादा हाथ पांव तो इरफान वगैरह चलाते दिखे । उनका इल्जाम है कि मैंने एक ही पार्ट में खत्म करने की जिद पर सब कुछ जल्दी जल्दी निपटाया और पाठकों को ठगा ।

बकौल उनके अब मेरे गुनाहों की तलाफी इस बात में है कि मैं पाठकों को आश्वासन दूं कि उनको सन 2015 में उन्हें विमल सीरिज की नयी तिकड़ी पढने को यकीनी तौर पर मिलेगी ।

बहरहाल उपन्यास उम्दा था लेकिन क्षुधापूर्ति न कर सका । इसलिए 10 में से 6 नंबर । केवल पठनीय । वाह वाह जैसी कोई बात नहीं ।

उपरोक्त वृतांत में केवल एक खास तारीख तक की मेल और चिट्ठियों का समावेश किया गया है । पाठकों की राय अभी और भी है जिनका जिक्र मैं इस वृतांत की अगली किस्त में करूंगा ।

दीवाली की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ

विनीत

सुरेन्द्र मोहन पाठक