‘ऐज़ाज-ए-सुखन’
मेरे पाठकों की जानकारी के लिए निवेदन है कि आज तक मैंने विमल सीरीज के 46 उपन्यास लिखे हैँ जिन में से पहला ‘मौत का खेल’ था जो पहली बार सन् 1971 में प्रकाशित हुआ था और आखिरी ‘गैंग ऑफ फोर’ था जो सन् 2023 में प्रकाशित हुआ था। यानी विमल उर्फ सोहल की पाठकों के दरबार में हाजिरी लगते आधी सदी से ज़्यादा समय हो चुका है। विमल सीरीज का जिक्र होता है तो उसकी मकबूलियत की बुनियाद सीरीज के चौथे उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ को माना जाता है जिसके सन् 1977 में पहली बार प्रकाशन के बाद से विभिन्न प्रकाशकों द्वारा 23 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो अपने आप में उपन्यास की बेतहाशा कामयाबी का बड़ा सुबूत है, लेकिन इस बाबत मेरे से सवाल किया जाए तो मेरा जवाब होगा कि विमल सीरीज की असल क्रेज़ ‘असफल अभियान’ और ‘खाली वार’ ने बनाई थी जो कि सीरीज के नौवें और दसवें उपन्यास थे। फिर रही सही कसर बखिया पुराण की चौकड़ी ने पूरी कर दी थी जिस का पहला और सीरीज का ग्यारहवां उपन्यास ‘हारजीत’ था। ‘हारजीत’ के लेखन के दौरान मुझे विमल की बाबत एक स्लोगन सूझा था, जो बाद में सीरीज की सिग्नेचर ट्यून बना था, वो था – ‘जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है’। विमल की मजबूरियों को, उसके साथ हुए जुल्मों को, और फिर उसके रिवोल्ट वाले मोड में आने को ये एक लाइन बहुत खूबसूरती से अन्डरलाइन करती थी। लाइन, साफ जाहिर होता था, किसी शे’र का हिस्सा थी। मैंने बहुत लोगों से इस बाबत दरयाफ्त किया तो आखिर एक पाठक ने मुझे पूरा शे’र लिख भेजा, जो था:
कुछ न कहने से भी छिन जाता है राजाजेसुखन,
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है।
शे’र जोरदार था, मेरे मकसद को रास आता था, लेकिन ‘राजाज़ेसुखन’ मुझे खटकता था, उसका कोई मतलब मेरी समझ में नहीं आता था। ‘सुखन’ का मतलब तो कलाम, बातचीत, उक्ति होता था, खामोशी से उसका क्या छिन जाता था, ये लाख सिर मारने के बाद भी मेरी समझ ने नहीं आता था। बहरहाल पहली बार शे’र को मैंने अपनी स्क्रिप्ट में इसी रूप में दर्ज किया, ये सोच के दर्ज किया कि जैसे किसी ने वो शे’र सुझाया था वैसे ही कोई आलम फाजिल उस एक लफ़्ज़ का मतलब भी समझाएगा जो मेरी पकड़ में नहीं आता था। शे’र का जोशीला मिजाज ऐसा था कि बंदिश से ही हर किसी को पसंद आ गया था। फिर कहलवाया ऐसे किरदार से था जिसकी ‘हर जीत’ में वन-सीन-अपीयरेंस हर पाठक के दिल को छू गई थी। वो किरदार था इलाहाबाद में बंद हो चुकी कंपनी एरिक जॉनसन – जिसका कि कभी विमल मुलाजिम था – के सामने बैठे वयोवृद्ध मुस्लिम चाय वाले का जिसने विमल को पहचान कर भी नहीं पहचाना था। मौलाना का सिर झुका कर, बिना विमल से आँख मिलाए एक बड़ी सीख के हिंट के तौर पर ये शे’र कहना मेरे हर पाठक को जज्बाती कर गया, हर पाठक के दिल में उतर गया। मुझे बतौर लेखक बहुत वाहवाही हासिल हुई लेकिन मुझे मुतवातर खटकता रहा शे’र में कहीं कुछ गलत था। मेरे पास उर्दू की एक बड़ी प्रामाणिक डिक्शनरी थी जिसमें मैंने वो लफ़्ज़ तलाश किया तो वो मुझे न मिला। मैंने कई अपने वाकिफ, नावाकिफ उर्दू जानने वालों से उसका मतलब पूछा तो सब ने अनभिज्ञता से कंधे उचका कर जवाब दिया। एकाध ने ये जरूर कहा कि वो लफ़्ज़ गलत था, उनकी जानकारी में ऐसा कोई लफ़्ज़ उर्दू में नहीं होता था।
तदुपरांत मैं विमल सीरीज को बहुत आगे तक बढ़ा ले गया, कई बार इलाहाबाद के मौलाना चाय वाले से सुना शे’र मैंने विमल की जुबानी भी कहलवाया और वाहवाही लूटी लेकिन मन से ये खटका न गया कि शे’र अशुद्ध था, उसमें कहीं कोई खामी थी।
कालांतर में मेरा सुपुत्र सुनील अपनी पोस्ट-ग्रैजुएट स्टडीज़ के लिए दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया में दाखिल हुआ जहाँ उसके कई मुस्लिम दोस्त बने। तब मोबाईल की वर्तमान जैसी धुआँधार लोकप्रियता का जमाना अभी नहीं आया था। तब इन्स्ट्रूमेंट बहुत महंगा था और काल और भी ज़्यादा महंगी थी जिस की वजह से कोई कोई ही मोबाईल अफोर्ड कर सकता था। किसी खपत के तहत तब – सन् 1996 में - मेरे पास मोबाईल था जिसका इस्तेमाल कभी कभार सुनील भी करता था। ऐसे माहौल में एक बार मेरे मोबाईल पर उसके लिए काल आई, “अंकल, मैं ऐज़ाज बोल रहा हूँ, सुनील से बात करा दो!”
मेरे जेहन में एकाएक अनार सा फूटा। जैसे एकाएक ज्ञानचक्षु खुल गए।
“वो तो मैं कराता हूँ,” मैं बोला, “पर पहले तू ये बता, तेरे को अपने नाम का मतलब आता है?”
“हाँ जी,” वो हड़बड़ाया-सा बोला, “आता है।”
“गुड! मेरे को बता!”
“आदर-मान! रुतबा!”
“गुड! गॉड ब्लैस यू, माई डिअर!”
मैंने सुनील को बुला कर मोबाईल उसके हवाले किया।
जो मतलब दोस्त ने बताया, वो फौरन मुझे जंच गया। अब मैं जान गया कि सही लफ़्ज़ ‘ऐज़ाजेसुखन’ था जिसका मतलब था ‘कलाम का रुतबा’ जोकि शे’र में बिलकुल फिट बैठता था। आप अपने कलाम की प्रतिष्ठा को खुद नहीं समझेंगे, उसे पुरजोर तरीके से इस्तेमाल में नहीं लाएंगे, तो आपसे कलाम का हक ही छिन जाएगा। नतीजतन आप जुल्म सहेंगे और प्रत्यक्ष में या परोक्ष में जालिम की मदद करेंगे।
फिर मैंने डिक्शनरी में ‘ऐज़ाज’ शब्द तलाश किया तों उसमे जो मानी दर्ज पाए, वो थे: चमत्कार, करिश्मा, करामात, आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा, रुतबा।
सब मुझे सटीक लगे और अब शे’र भी सटीक लगने लगा।
लेकिन इस बाबत मेरे मन में कभी कोई उत्सुकता न जागी कि शायर कौन था। आखिर किसी ने तो वो उम्दा, मानीखेज शे’र कहा ही था! बतौर किस्सागो, मेरा मतलब शे’र से हल होता था, मैं कभी उसे अपनी तहरीर में पिरो लेता था, मेरे लिए इतना ही काफी था।
शे’र मैं बहुत पढ़ता था। जो अच्छा लगे उसे नोट भी करता था इसलिए तकरीबन तमाम उस्ताद शायरों के कलाम से वाकिफ था, फिर भी वो शे’र प्रिन्ट में कभी मेरी निगाह से न गुजरा, न मैंने कभी किसी की जुबानी उसे सुना।
यूं सालों गुजर गए, विमल सीरीज ने पचास साल पूरे कर लिए और उसके नावलों का स्कोर हाफ सेंचुरी तक पहुँचने के लिए तैयार था, जबकि बुधवार, तीन जुलाई 2024 को मुझे अपने पुराने, मेहरबान दोस्त और कद्रदान पाठक महेंद्र दत्त शर्मा की एक मेल प्राप्त हुई जिसका सब्जेक्ट था: ‘इलाहाबाद में चाय बनाते मौलाना विमल को जो शे’र कहते है, वो मुजफ्फर वारसी की गजल से है’।
मेल पढ़ कर मेरा दिल बाग बाग हो गया। सालों का भ्रम आखिर तब महेंद्र शर्मा की उस मेल से ध्वस्त हुआ।
पाठक शायद पढ़ना चाहें इसलिए महेंद्र शर्मा की भेजी मुकम्मल गजल यहाँ दर्ज है:
करें बात दलीलों से तो रद होती है,
उसके होंटों की खामोशी भी सनद होती है।
सांस लेते हुए इंसां भी हैँ लाशों की तरह,
अब धड़कते दिल की भी लहद होती है।
जिसकी गर्दन में है फंदा वही इंसान बड़ा,
सूलियों से यहाँ पैमाइश-ए-कद होती है।
शो’बदा-गर भी पहनते हैँ खतीबों का लिबास,
बोलता जहल है बदनाम खिरद होती है।
कुछ न कहने से भी छिन जाता है ऐज़ाज-ए-सुखन,
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है।
रद : झुठलाना, न मानना
लहद : कब्र, मजार
शो’बदा-गर : बाजीगर, मदारी
खतीब : खुतबा पढ़ने वाला, व्याख्यानदाता
ज़ुहल : नादान, अज्ञानी
खिरद : अक्ल, बुद्धि